हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, मैं तो जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही
होता जैसा आज है।..... बौद्ध तत्ववाद जो निश्चित ही बौद्ध आचार्यों की चिंता की देन था, मध्ययुग के हिन्दी साहित्य के उस अंग पर अपना निश्चित
पदचिह्न छोड़ गया है जिसे संत साहित्य नाम दिया गया है। ..... मैं जो कहना चाहता हूँ वह यह है कि बौद्ध धर्म क्रमशः लोक धर्म का रूप ग्रहण
कर रहा था और उसका निश्चित चिह्न हम हिन्दी साहित्य में पाते हैं।
समग्रतः भक्ति आंदोलन का उदय ग्रियर्सन व ताराचंद के लिए बाहय प्रभाव, शुक्ल के लिए बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया तथा द्विवेदी के लिए भारतीय
परंपरा का स्वतः स्फूर्त विकास था।
भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण में हुई और उसके पुरस्कर्ता आलवार भक्त थे। बाद में वैष्णव आचार्यों-रामानुज, निम्बार्क, मध्व, विष्णु स्वामी-ने
भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया। दार्शनिक विवेचन द्वारा पुष्टि पाकर दक्षिण भारत में भक्ति की बहुत उन्नति हुई और दक्षिण से चली हुई
भक्ति की लहर 13 वीं सदी ई० में महाराष्ट्र पहुँची। तदन्तर यह उत्तर भारत पहुँची। उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के सूत्रपात का
श्रेय रामानन्द को है ('भक्ति द्राविड़ उपजी, लाए रामानन्द') । रामानंद ने उत्तर भारत में भक्ति को जन-जन तक पहुँचाकर इसे लोकप्रिय बनाया।
भक्ति आंदोलन का स्वरूप देशव्यापी था। दक्षिण में आलवार-नायनार व वैष्णव आचार्यो, महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय (ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ,
तुका राम), उत्तर भारत में रामानं, बल्लभ आचार्य, बंगाल में चैतन्य, असम में शंकरदेव (महापुरुषीय धर्म- एक शरण संप्रदाय),
उड़ीसा में पंचसखा (बलरामदास, अनंतदास, यशोवंत दास, जगन्नाथ दास, अच्युतानंद) आदि इसी बात को प्रमाणित करते हैं।
भक्ति काव्य की दो काव्य धाराएँ हैं- निर्गुण काव्य-धारा व सगुण काव्य-धारा।
निर्गुण काव्य-धारा की दो शाखाएँ हैं- ज्ञानाश्रयी शाखा/संत काव्य व प्रेमाश्रयी शाखा/सूफी काव्य। संत काव्य के प्रतिनिधि कवि कबीर है व
सूफी काव्य के प्रतिनिधि कवि जायसी हैं।
सगुन काव्य-धारा की दो शाखाएँ हैं- कृष्णाश्रयी शाखा/कृष्ण भक्ति काव्य व रामाश्रयी शाखा/राम भक्ति काव्य। कृष्ण भक्ति काव्य के प्रतिनिधि
कवि सूरदास हैं व राम भक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि तुलसी दास हैं।
प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : पद्यावत, रामचरितमानस मुक्तक काव्य कृतियाँ : गीतावली, कवितावली, कबीर के पद
कबीर की रचनाओं में साधनात्मक रहस्यवाद मिलता है जबकि जायसी की रचनाओं में भावात्मक रहस्यवाद।
निर्गुण काव्य की विशेषताएँ :
(1) निर्गुण निराकार ईश्वर में विश्वास
(2) लौकिक प्रेम द्वारा अलौकिक/आध्यात्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति
(3) धार्मिक रूढ़ियों व सामाजिक कुरीतियों का विरोध
(4) जाति प्रथा का विरोध व हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन
(5) रहस्यवाद का प्रभाव
(6) लोक भाषा का प्रयोग।
सगुण काव्य की विशेषताएँ :
(1) अवतारवाद में विश्वास
(2) ईश्वर की लीलाओं का गायन
(3) भक्ति का विशिष्ट रूप (रागानुगा भक्ति-कृष्ण भक्त कवियों द्वारा, वैधी भक्ति-राम भक्त कवियों द्वारा)
(4) लोक भाषा का प्रयोग
कबीर ने अपने आदर्श-राज्य (Utopia) को 'अमर देस', रैदास ने 'बेगमपुरा' (ऐसा शहर जहाँ कोई गम न हो)
एवं तुलसी ने 'राम-राज कहा है।
'संत काव्य' का सामान्य अर्थ है संतों के द्वारा रचा गया काव्य। लेकिन जब हिन्दी में 'संत काव्य' कहा जाता है तो उसका अर्थ होता है
निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी कवियों के द्वारा रचा गया काव्य।
संत कवि : कबीर, नामदेव, रैदास, नानक, धर्मदास, रज्जब, मलूकदास, दादू, सुंदरदास, चरणदास, सहजोबाई आदि।
सुंदरदास को छोड़कर सभी संत कवि कामगार तबके से आते है; जैसे-कबीर (जुलाहा), नामदेव (दर्जी), रैदास (चमार),
दादू (बुनकर), सेना (नाई), सदना (कसाई)।
संत काव्य की विशेषताएँ-धार्मिक :
(1) निर्गुण ब्रह्म की संकल्पना
(2) गुरु की महत्ता
(3) योग व भक्ति का समन्वय
(4) पंचमकार
(5) अनुभूति की प्रामाणिकता व शास्त्र ज्ञान की अनावश्यकता
(6) आडम्बरवाद का विरोध
(7) संप्रदायवाद का विरोध; सामाजिक : (1) जातिवाद का विरोध
(2) समानता के प्रेम पर बल; शिल्पगत : (1) मुक्तक काव्य-रूप
(2) मिश्रित भाषा
(3) उलटबाँसी शैली (संधा/संध्याभाषा-हर प्रसाद शास्त्री)
(4) पौराणिक संदर्भो व हठयोग से संबंधित मिथकीय प्रयोग
(5) प्रतीकों का भरपूर प्रयोग।
रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी भाषा' की संज्ञा दी है।
श्यामसुंदर दास ने कई बोलियों के मिश्रण से बनी होने के कारण कबीर की भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' कहा है।
बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण ही हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है।
'प्रेमाख्यानक काव्य' का अर्थ है जायसी आदि निर्गुणोपासक प्रेममार्गी सूफी कवियों के द्वारा रचित प्रेम-कथा काव्य।
प्रेमाख्यानक काव्य को प्रेमाख्यान काव्य, प्रेमकथानक काव्य, प्रेम काव्य, प्रेममार्गी (सूफी) काव्य आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
प्रेमाख्यानक काव्य की विशेषताएँ :
(1) विषय वस्तु/कथावस्तु का प्रयोग
(2) अवांतर/गौण प्रसंगों की भरमार व काव्येतर विषयों का समावेश
(3) विभिन्न तरह के पात्र
(4) प्रेम का आधिक्य
(5) काव्य-रूप - कथा काव्य
(6) द्वंद्वात्मक काव्य-शिल्प (लोक कथा व शिष्ट कथा का मेल)
(7) काव्य-भाषा-अवधी
(8) कथा रूपक या प्रतीक काव्य
(9) वियोग श्रृंगार/विरह श्रृंगार को अधिक महत्व ('पद्यावत' के एक अंश-नागमती का विरह वर्णन- को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि कहा जाता है)
यों तो सभी प्रेमाख्यानों में सामान्य मानव की प्रेम कथाएं है लेकिन सूफियों का तर्क है कि इश्क मजाजी
(मानवीय प्रेम) इश्क हकीकी (दैविक प्रेम) की सीढ़ी है।
मलिक मुहम्मद जायसी जायस के रहने वाले थे। ये सिंकदर लोदी एवं बाबर के समकालीन थे।
जायसी के यश का आधार है- ''पद्मावत'।
'पद्मावत' प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध काव्य है। यह चौपाई-दोहा में निबद्ध
(7 चौपाई के बाद 1 दोहा) मसनवी शैली में लिखा गया है।
'पद्मावत' की कथा चितौड़ के शासक रतन सेन और सिंहलद्वीप की राजकन्या पदमिनी की प्रेम कहानी पर आधारित है।
इसमें ( 'पद्मावत' में) रतनसेन की पहली पत्नी नागमती के वियोग का अनूठा वर्णन किया गया है।
'पद्मावत' के नागमती-वियोग खंड को हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि माना जाता है।
जिन भक्त कवियों ने विष्णु के अवतार के रूप में कृष्ण की उपासना को अपना लक्ष्य बनाया वे 'कृष्णाश्रयी शाखा' के कवि कहलाए।
मध्य युग में कृष्ण भक्ति का प्रचार ब्रज मण्डल में बड़े उत्साह और भावना के साथ हुआ। इस ब्रज मण्डल में कई कृष्ण-भक्ति
संप्रदाय सक्रिय थे। इनमें बल्लभ, निम्बार्क, राधा वल्लभ, हरिदासी (सखी संप्रदाय) और चैतन्य (गौड़ीय) संप्रदाय विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इन संप्रदायों से जुड़े ढ़ेर सारे कवि कृष्ण काव्य रच रहे थे।
लेकिन जो समर्थ कवि कृष्ण काव्य को एक लोकप्रिय काव्य आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठित किया वे सभी बल्लभ संप्रदाय से जुड़े थे।
बल्लभ संप्रदाय का दार्शनिक सिद्धांत 'शुद्धाद्वैत' तथा साधना मार्ग 'पुष्टि मार्ग' कहलाता है। पुष्टि मार्ग का आधार-ग्रंथ 'भागवत' (श्रीमदभागवत) है।
पुष्टि मार्ग में बल्लभाचार्य ने कवियों (सूरदास, कुंभनदास, परमानंद दास व कृष्णदास) को दीक्षित किया। उनके मरणोपरांत उनके पुत्र विटठलनाथ
आचार्य की गद्दी पर बैठे और उन्होंने भी 4 कवियों (छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास व नंददास) को दीक्षित किया। विटठलनाथ
ने इन दीक्षित कवियों को मिलाकर 'अष्टछाप' की स्थापना 1565 ई० में की।
सूरदास इनमें सर्वप्रमुख हैं और उन्हें 'अष्टछाप का जहाज' कहा जाता है।
निम्बार्क संप्रदाय से जुड़े कवि थे- श्री भट्ट, हरि व्यास देव; राधा बल्लभ संप्रदाय से संबद्ध कवि हित हरिवंश थे;
हरिदासी संप्रद्राय की स्थापना स्वामी हरिदास ने की और वे ही इस संप्रदाय के प्रथम और अंतिम कवि थे।
चैतन्य संप्रदाय से संबद्ध कवि गदाधर भट्ट थे।
कुछ कृष्ण भक्त कवि संप्रदाय निरपेक्ष भी थे; जैसे- मीरा, रसखान आदि।
कृष्ण भक्ति काव्य धारा ऐसी काव्य धारा थी जिसमें सबसे अधिक कवि शामिल हुए।
कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताएँ :
(1) कृष्ण का ब्रह्म रूप में चित्रण
(2) बाल-लीला व व वात्सल्य वर्णन
(3) श्रृंगार चित्रण
(4) नारी मुक्ति
(5) सामान्यता पर बल
(6) आश्रयत्व का विरोध
(7) लोक संस्कृति पर बल
(8) लोक संग्रह
(9) काव्य-रूप : मुक्तक काव्य की प्रधानता
(10) काव्य-भाषा-ब्रजभाषा
(11) गेय पद परंपरा।
माता पिता की जो ममता अपने संतान पर बरसती है उसे 'वात्सल्य' कहते हैं। सूर वात्सल्य चित्रण के लिए विश्व में अन्यतम कवि माने जाते हैं।
इन्हीं के कारण, रसों के अतिरिक्त वात्सल्य को एक रस के रूप में मान्यता मिली।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की राय है, 'यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्य क्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की
भिन्न-भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा।
श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में
तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।'
भक्ति आंदोलन में कृष्ण काव्यधारा ही एकमात्र ऐसी धारा है जिसमें नारी मुक्ति का स्वर मिलता है। इनमें सबसे प्रखर स्वर मीरा बाई का है।
मीरा अपने समय के सामंती समाज के खिलाफ एक क्रांतिकारी स्वर है।
जिन भक्त कवियों ने विष्णु के अवतार के रूप में राम की उपासना को अपना लक्ष्य बनाया वे 'रामाश्रयी शाखा' के कवि कहलाए।
कुछ उल्लेखनीय राम भक्त कवि हैं- रामानंद, अग्रदास, ईश्वर दास, तुलसी दास, नाभादास, केशवदास, नरहरिदास आदि।
राम भक्ति काव्य धारा के सबसे बड़े और प्रतिनिधि कवि है तुलसी दास।
राम भक्त कवियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। कम संख्या होने का सबसे बड़ा कारण है तुलसीदास का बरगदमयी व्यक्तित्व।
यह सवर्णवादी काव्य धारा है इसलिए यह उच्चवर्ण में ज्यादा लोकप्रिय हुआ।
राम भक्ति काव्य की विशेषताएँ :
(1) राम का लोक नायक रूप
(2) लोक मंगल की सिद्धि
(3) सामूहिकता पर बल
(4) समन्वयवाद
(5) मर्यादावाद
(6) मानवतावाद
(7) काव्य-रूप-प्रबंध व मुक्तक दोनों
(8) काव्य-भाषा-मुख्यतः अवधी
(9) दार्शनिक प्रतीकों की बहुलता।
राम भक्ति काव्य धारा आगे चलकर रीति काल में मर्यादावाद की लीक छोड़कर रसिकोपासना की ओर बढ़ जाती है।
'तुलसी का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
'भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
संतन को कहा सीकरी सो काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरिनाम।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम। -कुंभनदास
नाहिन रहियो मन में ठौर
नंद नंदन अक्षत कैसे आनिअ उर और -सूरदास
हऊं तो चाकर राम के पटौ लिखौ दरबार,
अब का तुलसी होहिंगे नर के मनसबदार। -तुलसीदास
आँखड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि
जीभड़ियाँ झाला पड़याँ, राम पुकारि पुकारि। -कबीर
तीरथ बरत न करौ अंदेशा। तुम्हारे चरण कमल मतेसा।।
जह तह जाओ तुम्हारी पूजा। तुमसा देव और नहीं दूजा।। -जायसी
तलफत रहित मीन चातक ज्यों, जल बिनु तृषानु छीजे अँखियां हरि दर्शन की भूखी।
हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोई। -मीरा
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास।
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास। -तुलसीदास
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाई।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताई।। -कबीर
बसहि पक्षी बोलहि बहुभाखा,
करहि हुलास देखिके शाखा। -जायसी
तन चितउर, मन राजा कीन्हा।
हिय सिंघल, बुधि पदमिनी चीन्हा।।
गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा।
बिनु गुरु जगत को निरगुण पावा।।
नागमती यह दुनिया धंधा।
बांचा सोई न एहि चित्त बंधा।।
राघव दूत सोई सैतान।
माया अलाउदी सुल्तान।।-जायसी
जहाँ न राति न दिवस है,
जहाँ न पौन न घरानि।
तेहि वन होई सुअरा बसा,
को रे मिलावे आनि।। -जायसी
मानुस प्रेम भएउँ बैकुंठी
नाहि त काह छार भरि मूठि।
(प्रेम ही मनुष्य के जीवन का चरम मूल्य है, जिसे पाकर मनुष्य बैकुंठी हो जाता है,
अन्यथा वह एक मुट्ठी राख नहीं तो और क्या है ? -जायसी
छार उठाइ लीन्हि एक मूठी,
दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी। -जायसी
सोलह सहस्त्र पीर तनु एकै, राधा जीव सब देह। -सूरदास
पुख नछत्र सिर ऊपर आवा।
हौं बिनु नौंह मंदिर को छावा।
बरिसै मघा झँकोरि झँकोरि।
मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी। -जायसी
पिउ सो कहहू संदेसड़ा हे भौंरा हे काग।
सो धनि बिरहें जरि मुई तेहिक धुँआ हम लाग।। -जायसी
जसोदा हरि पालने झुलावे/सोवत जानि मौन है रहि करि-करि सैन बतावे/इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि,
जसुमती मधुरै गावे। -सूरदास