(Word-Power) - शब्द-शक्ति


शब्द-शक्ति (Word-Power) की परिभाषा

शब्द का अर्थ बोध करानेवाली शक्ति 'शब्द शक्ति' कहलाती है।
शब्द-शक्ति को संक्षेप में 'शक्ति' कहते हैं। इसे 'वृत्ति' या 'व्यापार' भी कहा जाता है।

सरल शब्दों में- मिठाई या चाट का नाम सुनते ही मुँह में पानी भर आता है। साँप या भूत का नाम सुनते ही मन में भय का संचार हो जाता है। यह प्रभाव अर्थगत है। अतः जिस शक्ति के द्वारा शब्द का अर्थगत प्रभाव पड़ता है वह शब्दशक्ति है।

काव्य में रस का संचार शब्द-शक्तियों के द्वारा होता हैं। यहाँ शब्दों का विशेष महत्त्व माना गया हैं। काव्य-भाषा में वाक्यों की रचना इस बात की सूचक हैं कि उसमें अनेक प्रकार के शब्दों का प्रयोग प्रकरण, प्रसंग और कवि-आशय के अनुसार हुआ हैं। कवियों की कृतियों में शब्दों के अनेक अर्थ ढूँढने की प्रथा उचित नहीं कही जा सकती। देखना यह चाहिए कि कवि ने शब्दों का प्रयोग कर जिन अभीष्ट अर्थों को रखना चाहा हैं, उसमें वह कहाँ तक सफल हुआ हैं।

तात्पर्य यह हैं कि 'शब्द की शक्ति उसके अन्तर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार हैं।'' अर्थ का बोध कराने में 'शब्द' कारण हैं और अर्थ का बोध कराने वाले व्यापार को शब्द-शक्ति कहते हैं। आचार्य मम्मट ने व्यापार शब्द का और आचार्य विश्वनाथ ने शक्ति शब्द का प्रयोग किया हैं।

हिन्दी के रीतिकालीन आचार्य चिन्तामणि ने लिखा है कि ''जो सुन पड़े सो शब्द है, समुझि परै सो अर्थ'' अर्थात जो सुनाई पड़े वह शब्द है तथा उसे सुनकर जो समझ में आवे वह उसका अर्थ है। स्पष्ट है कि जो ध्वनि हमें सुनाई पड़ती है वह 'शब्द' है, और उस ध्वनि से हम जो संकेत या मतलब ग्रहण करते है वह उसका 'अर्थ' है।

शब्द से अर्थ का बोध होता है। अतः शब्द हुआ 'बोधक' (बोध करानेवाला) और अर्थ हुआ 'बोध्य' (जिसका बोध कराया जाये)।

जितने प्रकार के शब्द होंगे उतने ही प्रकार की शक्तियाँ होंगी। शब्द तीन प्रकार के- वाचक, लक्षक एवं व्यंजक होते हैं तथा इन्हीं के अनुरूप तीन प्रकार के अर्थ- वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ होते हैं। शब्द और अर्थ के अनुरूप ही शब्द की तीन शक्तियाँ- अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना होती हैं।

शब्द अर्थ शक्ति
वाचक/अभिधेय वाच्यार्थ/अभिधेयार्थ/मुख्यार्थ अभिधा
लक्षक/लाक्षणिक लक्ष्यार्थ लक्षणा
व्यंजक व्यंग्यार्थ/व्यंजनार्थ व्यंजना

वाच्यार्थ कथित होता है, लक्ष्यार्थ लक्षित होता है और व्यंग्यार्थ व्यंजित, ध्वनित, सूचित या प्रतीत होता है। शब्द में अर्थ तीन प्रकार से आता है। अर्थ के जो तीन स्त्रोत हैं उन्हीं के आधार पर शब्द की शक्तियों का नामकरण किया जाता है।

शब्द शक्ति के प्रकार

प्रक्रिया या पद्धति के आधार पर शब्द-शक्ति तीन प्रकार के होते हैं-

(1) अभिधा (Literal Sense Of a Word)
(2) लक्षणा (Figurative Sense Of a Word)
(3) व्यंजना (Suggestive Sense Of a Word)

अभिधा से मुख्यार्थ का बोध होता है, लक्षणा से मुख्यार्थ से संबद्ध लक्ष्यार्थ का, लेकिन व्यंजना से न मुख्यार्थ का बोध होता है न लक्ष्यार्थ का, बल्कि इन दोनों से भित्र अर्थ व्यंग्यार्थ का बोध होता है।

(1) अभिधा (Literal Sense Of a Word)- जिस शक्ति के माध्यम से शब्द का साक्षात् संकेतित (पहला/मुख्य/प्रसिद्ध/प्रचलित/पूर्वविदित) अर्थ बोध हो, उसे 'अभिधा' कहते हैं।

जैसे- 'बैल खड़ा है।'- इस वाक्य को सुनते ही बैल नामक एक विशेष प्रकार के जीव को हम समझ लेते हैं, उसे आदमी या किताब नहीं समझते।
यहाँ 'बैल' वाचक शब्द है जिसका मुख्यार्थ विशेष जीव है। परंपरा, कोश, व्याकरण आदि से यह अर्थ पूर्वविदित (पहले से मालूम) है। यानी शब्द और उसके अर्थ के बीच किसी प्रकार की बाधा नहीं है।

(अभिधा का अर्थ है 'नाम' ।) दूसरे शब्दों में नामवाची अर्थ को बतलानेवाला शक्ति को अभिधा कहते हैं। नाम जाति, गुण, द्रव्य या क्रिया का होता है और ये सभी साक्षात् संकेतित होते हैं। अभिधा को 'शब्द की प्रथमा शक्ति' भी कहा जाता है।)

उदाहरण- निराला की 'वह तोड़ती पत्थर' कविता के आरंभ की ये पंक्तियाँ अभिधा के प्रयोग का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं-

''वह तोड़ती पत्थर।
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।''

इन पंक्तियों में कवि, शब्दों से सीधे-सीधे जो अर्थ प्रकट करता है, वही अर्थ कविता का है- कवि ने पत्थर तोड़ती हुई स्त्री को इलाहाबाद के पथ पर देखा।

इस शब्द-शक्ति के द्वारा तीन प्रकार के शब्दों का बोध होता है- रूढ़ शब्द (जैसे-कृष्ण), यौगिक शब्द
(जैसे- पाठशाला) एवं योगरूढ़ शब्द (जैसे- जलज) ।

अभिधा का महत्त्व : अलंकारशास्त्रियों के अनुसार काव्य में अभिधा शब्द-शक्ति का विशेष महत्त्व नहीं है। लेकिन अभिधा एकदम से महत्त्वहीन नहीं है। हिन्दी के रीतिकालीन आचार्य देव का मानना है : ''अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणालीन/अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन।''
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है : ''वास्तव में व्यंग्यार्थ या लक्ष्यार्थ के कारण चमत्कार आता है; परन्तु वह चमत्कार होता है वाच्यार्थ में ही। अतः इस वाच्यार्थ को देने वाली अभिधा शक्ति का अपना महत्त्व है।'' आचार्य शुक्ल अन्यत्र लिखते हैं : ''जब कविता में कल्पना और सौंदर्यवाद का अतिशय जोर हो जाता तब जीवन की वास्तविकता पर बल देने के लिए काव्य में भी अभिधा शक्ति का महत्त्व बढ़ जाता है।''

अभिधा के प्रकार

'अभिधा' शक्ति द्वारा तीन प्रकार के शब्दों का अर्थ-बोध हैं-

(1) रूढ़ शब्द- ये शब्द जातिवाचक होते हैं, जैसे- घोड़ा, मनुष्य आदि;
(2) यौगिक शब्द- इन शब्दों का अर्थ बोध अवयवों (प्रकृति और प्रत्ययों) की शक्ति के द्वारा होता हैं, जैसे-दिवाकर, सुधांशु आदि।
(3) योगरूढ़ शब्द- इनका अर्थ-बोध समुदाय और अवयवों की शक्ति से होता हैं; ये शब्द यौगिक होते हुए भी रूढ़ होते हैं।
जैसे- जलज, वारिज आदि। इनका यौगिक अर्थ जल में उत्पत्र वस्तु हैं पर योगरूढ़ अर्थ केवल 'कमल' हैं।

(2) लक्षणा (Figurative Sense Of a Word)- अभिधा के असमर्थ हो जाने पर जिस शक्ति के माध्यम से शब्द का अर्थ बोध हो, उसे 'लक्षणा' कहते हैं।

लक्षणा की शर्ते : लक्षणा के लिए तीन शर्ते है-

(i) मुख्यार्थ में बाधा- इसमें मुख्य अर्थ या अभिधेय अर्थ लागू नहीं होता है वह बाधित (असंगत) हो जाता है।

(ii) मुख्यार्थ एवं लक्ष्यार्थ में संबंध- जब मुख्य अर्थ बाधित हो जाता है, पर यह दूसरा अर्थ अनिवार्य रूप से मुख्य अर्थ से संबंधित होता है।

(iii) रूढ़ि या प्रयोजन- मुख्य अर्थ को छोड़कर उसके दूसरे अर्थ को अपनाने के पीछे या तो कोई रूढ़ि होती है या कोई प्रयोजन।

रूढ़ि कहते हैं प्रयोग-प्रवाह, प्रसिद्ध को। अर्थात वैसा बोलने का चलन है, तरीका है। किसी बात को कहने की जो प्रथा हो जाती है, वह 'रूढ़ि' कहलाती है।
जैसे- ''मुझे देखते ही वह नौ दो ग्यारह हो गया।''- इस वाक्य में 'नौ दो ग्यारह होना' (मुहावरा) का अर्थ है- 'भाग जाना।' इसके बदले में यदि कोई कहे कि 'मुझे देखते ही वह दस बीस चालीस हो गया।' या 'मुझे देखते ही वह ग्यारह दो नौ हो गया।' तो इसका कोई अर्थ नहीं होगा क्योंकि ऐसी कोई रूढ़ि नहीं है। यानी भागने की रूढ़ि अर्थात प्रसिद्ध नौ दो ग्यारह में ही है।

प्रयोजन कहते है अभिप्राय या मतलब को। अर्थात हमारे मन में कोई ऐसा अभिप्राय है जो प्रयुक्त शब्द से व्यक्त नहीं हो रहा है तब उसके लिए दूसरा शब्द प्रयोग कर अपना अभिप्राय प्रकट करते हैं। जैसे हम किसी को अतिशय मूर्ख कहना चाहते हैं तो ''तुम मूर्ख हो।'' कह देने से मूर्खता की अतिशयता प्रकट नहीं होती, लेकिन यदि हम कहे कि ''तुम बैल हो।'' तो इसका अर्थ है कि तुम अतिशय मूर्ख (बुद्धिमान) हो। यहाँ 'बैल' शब्द का प्रयोग मूर्खता की अतिशयता बताने के प्रयोजन से किया गया है।

लक्षणा की शास्त्रीय परिभाषा : मुख्यार्थ के बाधित होने पर जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से संबंधित अन्य अर्थ रूढ़ि या प्रयोजन के कारण लिया जाए, वह 'लक्षणा' है।

उदाहरण-
(i) सभी मुहावरे व लोकोक्तियाँ- सभी मुहावरों एवं लोकोक्तियों में लक्षणा शब्द-शक्ति के सहारे अर्थ ग्रहण किया जाता है। जैसे- ''उसके लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है।''- इस वाक्य में 'चुल्लू भर पानी में डूब मरना (मुहावरा)' से हमें शब्दों का मुख्यार्थ अभीष्ट नहीं है। हम इनसे दूसरा अर्थ लेते हैं कि 'बड़ी लज्जा की बात है।' इसी तरह 'राम चरण की जगह उसके भतीजे पिण्टू के घर के मालिक होने पर उसके पड़ोसी ने कहा- हंसा थे सो उड़ गये, कागा भये दीवान।'- इस वाक्य में 'हंसा थे सो उड़ गये, कागा भये दीवान (लोकोक्ति) से हम शब्दों का मुख्यार्थ नहीं लेते, बल्कि हम इनसे दूसरा अर्थ लेते हैं कि उक्त घर में 'सज्जन/योग्य/गुणवान व्यक्ति के स्थान पर दुर्जन/अयोग्य/गुणहीन व्यक्ति का आधिपत्य हो गया है।'

(ii) एक पद्यबद्ध उदाहरण- निराला की 'वह तोड़ती पत्थर' कविता की अंतिम पंक्ति-
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।

दृष्टि मार नहीं खाती, प्राणी मार खाता है, दृष्टि नहीं रोती प्राणी रोता है। इसलिए दृष्टि 'जो मार खा रोई नहीं'- इस कथन में अभिधेय अर्थ या मुख्य अर्थ लागू नहीं होता, बाधित हो जाता है। तब हम उससे संबंधित अन्य अर्थ दूसरा अर्थ लेते हैं- कवि उस स्त्री की बात कह रहा है जो जीवन संघर्ष में बार-बार मार खाकर या आघात झेलकर रोई नहीं।

(iii) एक और पद्यबद्ध उदाहरण- दिनकर की काव्य-कृति 'रेणुका' से-
विद्युत की इस चकाचौंध में,
देख, दीप की लौ रोती है,
अरी, ह्रदय को थाम,
महल के लिए झोपड़ी बलि होती है।

इस पद्य का मुख्यार्थ स्पष्ट है कि विद्युत की इस चकाचौंध में दीप की लौ रोती है। अरी ! हृदय को थाम ले, यहाँ महल के लिए झोपड़ी बलि होती है। किन्तु इसका लक्ष्यार्थ यह है कि महलों में रहनेवाले लोगों को जो वैभव प्राप्त है वह वस्तुतः झोंपड़ी में रहनेवाले मजदूरों के श्रम का ही परिणाम है। इस पद्य में 'महल' का अर्थ महल के निवासी अर्थात 'धनी' और 'झोपड़ी' का अर्थ झोंपड़ी के निवासी अर्थात 'निर्धन' अर्थ भी लक्षणा शब्द-शक्ति से गृहीत होते हैं। इसी प्रकार इस पद्य में प्रयुक्त 'विद्युत की चकाचौंध' का 'वैभव' अर्थ और 'दीपक की लौ का रोना' का 'श्रमिक जीवन' अर्थ भी लक्षणा शब्द-शक्ति द्वारा ज्ञात होते हैं।

लक्षणा के भेद

लक्षणा के भेद कारण के आधार पर लक्षणा के दो भेद हैं-
(1) रूढ़ा लक्षणा
(2) प्रयोजनवती लक्षणा

(1) रूढ़ा लक्षणा- जहाँ रूढ़ि के कारण मुख्यार्थ से भिन्न लक्ष्यार्थ का बोध हो, वहाँ 'रूढ़ा लक्षणा' होती है।

उदाहरण :
(i) गद्यात्मक उदाहरण : ''आप तो एकदम राजा हरिश्चन्द्र है'' का लक्ष्यार्थ है आप हरिश्चन्द्र के समान सत्यवादी हैं। सत्यवादी व्यक्ति को राजा हरिश्चन्द्र कहना रूढ़ि है।

(ii) पद्यबद्ध उदाहरण : 'आगि बड़वाग्नि ते बड़ी है आगि पेट की' (तुलसी) का मुख्यार्थ है- बड़वाग्नि यानी समुद्र में लगने वाली आग से बड़ी पेट की आग होती है। पेट में आग नहीं, भूख लगती है इसलिए मुख्यार्थ की बाधा है। लक्ष्यार्थ है तीव्र और कठिन भूख को व्यक्त करना जो पेट की आग के जरिये किया गया है। तीव्र और कठिन भूख के लिए 'पेट में आग लगना' कहना रूढ़ि है।

(2) प्रयोजनवती लक्षणा- जहाँ प्रयोजन के कारण मुख्यार्थ से भिन्न लक्ष्यार्थ का बोध हो, वहाँ 'प्रयोजनवती लक्षणा' होती है।

उदाहरण :
(i) ''शिवाजी सिंह है''- यदि हम कहें कि शिवाजी सिंह हैं। तो सिंह शब्द के मुख्यार्थ (विशेष जीव) में बाधा पड़ जाती है। हम सब जानते है कि शिवाजी आदमी थे, सिंह नहीं लेकिन यहाँ शिवाजी के लिए सिंह शब्द का प्रयोग विशेष प्रयोजन के लिए किया गया है। शिवाजी को वीर या साहसी बताने के लिए सिंह शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार 'सिंह' शब्द का 'वीर' या 'साहसी' अर्थ लक्ष्यार्थ है।

(ii) ''लड़का शेर है''- यदि हम कहें कि 'लड़का शेर है।' तो इसका लक्ष्यार्थ है 'लड़का निडर है।' यहाँ पर शेर का सामान्य अर्थ अभीष्ट नहीं है। लड़के को निडर बताने के प्रयोजन से उसके लिए शेर शब्द का प्रयोग किया गया है।

(iii) एक पद्यबद्ध उदाहरण :
कौशल्या के वचन सुनि भरत सहित रनिवास।
व्याकुल विलप्त राजगृह मनहुँ शोक निवास।।
-तुलसी

कौशल्या के वचन सुनकर समस्त राजगृह व्याकुल होकर रो रहा है। 'राजगृह' अर्थात राजभवन नहीं रो सकता। 'राजगृह' का लक्ष्यार्थ है 'राजगृह में रहनेवाले लोग' । समस्त राजगृह के रोने से अत्यधिक दुःख को व्यक्त करने का विशेष प्रयोजन है।