अलौकिक, आश्चर्यजनक दृश्य या वस्तु को देखकर सहसा विश्वास नहीं होता और मन में स्थायी भाव विस्मय उत्पन्न होता हैं। यही विस्मय जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में पुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है, तो अद्भुत रस उत्पन्न होता है।
उदाहरण- ''अम्बर में कुन्तल जाल देख,यहाँ स्थायी भाव विस्मय, ईश्वर का विराट, स्वरूप आलम्बन, विराट के अद्भुत क्रियाकलाप उद्दीपन, आँखें फाड़कर देखना, स्तब्ध, अवाक् रह जाना अनुभाव और भ्रम, औत्सुक्य, चिन्ता, त्रास आदि संचारी भाव हैं, अतः यहाँ अद्भुत रस है।
अभिनवगुप्त ने शान्त रस को सर्वश्रेष्ठ माना है। संसार और जीवन की नश्वरता का बोध होने से चित्त में एक प्रकार का विराग उत्पन्न होता है परिणामतः मनुष्य भौतिक तथा लौकिक वस्तुओं के प्रति उदासीन हो जाता है, इसी को निर्वेद कहते हैं। जो विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत हो जाता है।
उदाहरण- ''सुत वनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबही ते।
अन्तहिं तोहि तजेंगे पामर! तू न तजै आभि ते।।
अब नाथहिं अनुराग जाग जड़, त्यागु दुरदसा जीते।
बुझै न काम अगिनि 'तुलसी' कहुँ विषय भोग बहु घी ते।।''
यहाँ स्थायी भाव, निर्वेद आश्रय, सम्बोधित सांसरिक जन आलम्बन, सुत वनिता आदि अनुभाव,
सुत वनितादि को छोड़ने को कहना
संचारी भाव धृति, मति विमर्श आदि हैं, अतः यहाँ शान्त रस है।
शास्त्रीय दृष्टि से नौ ही रस माने गए हैं लेकिन कुछ विद्वानों ने सूर और तुलसी की रचनाओं के आधार पर दो नए रसों को मान्यता
प्रदान की है- वात्सल्य और भक्ति।
वात्सल्य रस का सम्बन्ध छोटे बालक-बालिकाओं के प्रति माता-पिता एवं सगे-सम्बन्धियों का प्रेम एवं ममता के भाव से है।
हिन्दी कवियों में सूरदास ने वात्सल्य रस को पूर्ण प्रतिष्ठा दी है। तुलसीदास की विभिन्न कृतियों के बालकाण्ड में वात्सल्य रस की सुन्दर
व्यंजना द्रष्टव्य है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह है।
उदाहरण- ''किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मणिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत।
कबहूँ निरखि हरि आप छाँह को कर सो पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ पुनि पुनि तिहि अवगाहत।।''
यहाँ स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह, आलम्बन कृष्ण की बाल सुलभ चेस्टाएँ, उद्दीपन किलकना, बिम्ब को पकड़ना, अनुभाव रोमांचित होना, मुख चूमना, संचारी भाव हर्ष, गर्व, चपलता, उत्सुकता आदि हैं, अतः यहाँ वात्सल्य रस है।
भक्ति रस शान्त रस से भिन्न है। शान्त रस जहाँ निर्वेद या वैराग्य की ओर ले जाता है वहीं भक्ति ईश्वर विषयक रति की ओर ले जाते हैं यही इसका स्थायी भाव भी है। भक्ति रस के पाँच भेद हैं- शान्त, प्रीति, प्रेम, वत्सल और मधुर। ईश्वर के प्रति भक्ति भावना स्थायी रूप में मानव संस्कार में प्रतिष्ठित है, इस दृष्टि से भी भक्ति रस मान्य है।
उदाहरण- ''मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई।यहाँ स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति, आलम्बन श्रीकृष्ण उद्दीपन कृष्ण लीलाएँ, सत्संग, अनुभाव-रोमांच, अश्रु, प्रलय, संचारी भाव हर्ष, गर्व, निर्वेद, औत्सुक्य आदि हैं अतः यहाँ भक्ति रस है।
रस | स्थायी भाव | उदाहरण |
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(1) शृंगार रस | रति/प्रेम | (i) संयोग शृंगार : बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय। (संभोग श्रृंगार): सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी) (ii) वियोग श्रृंगार : निसिदिन बरसत नयन हमारे (विप्रलंभ श्रृंगार): सदा रहित पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे।।(सूरदास) |
(2) हास्य रस | हास | तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप, साज मिले पंद्रह मिनट, घंटा भर आलाप। घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता, धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी) |
(3) करुण रस | शोक | सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी।। करहिं विलाप अनेक प्रकारा।। परिहिं भूमि तल बारहिं बारा।। (तुलसीदास) |
(4) वीर रस | उत्साह | वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो। तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं।। (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी) |
(5) रौद्र रस | क्रोध | श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे। संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े।। (मैथिली शरण गुप्त) |
(6) भयानक रस | भय | उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी।। (जयशंकर प्रसाद) |
(7) बीभत्स रस | जुगुप्सा/घृणा | सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।। गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत। स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।। (भारतेन्दु) |
(8) अदभुत रस | विस्मय/आश्चर्य | आखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु।। (सेनापति) |
(9) शांत रस | शम/निर्वेद (वैराग्य/वीतराग) |
मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना।। (कबीर) |
(10) वत्सल रस | वात्सल्य रति | किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत।। (सूरदास) |
(11) भक्ति रस | भगवद विषयक रति/अनुराग |
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। घोर भव नीर-निधि, नाम निज नाव रे।। (तुलसीदास) |
नोट:
(1) शृंगार रस को 'रसराज/ रसपति' कहा जाता है।
(2) नाटक में 8 ही रस माने जाते है क्योंकि वहां शांत को रस में नहीं गिना जाता। भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 माना है।
(3) भरत मुनि ने केवल 8 रसों की चर्चा की है, पर आचार्य अभिन्नगुप्त (950-1020 ई०) ने 'नवमोऽपि शान्तो रसः कहकर 9 रसों को काव्य में स्वीकार किया है।
(4) श्रृंगार रस के व्यापक दायरे में वत्सल रस व भक्ति रस आ जाते हैं इसलिए रसों की संख्या 9 ही मानना ज्यादा उपयुक्त है।
रस संबंधी विविध तथ्य
भरतमुनि (1 वी सदी) को 'काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य' माना जाता है। सर्वप्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र' में रस का विवेचन किया। उन्हें रस संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है।
भरत मुनि के कुछ प्रमुख सूत्र
(1) 'विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रस निष्पतिः'- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी (संचारी) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
(2) 'नाना भावोपगमाद् रस निष्पतिः। नाना भावोपहिता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्ति।'- नाना (अनेक) भावों के उपागम (निकट आने/ मिलने) से रस की निष्पत्ति होती है। नाना (अनेक) भावों से युक्त स्थायी भाव रसावस्था को प्राप्त होते हैं।
(3) 'विभावानुभाव व्यभिचारि परिवृतः स्थायी भावो रस नाम लभते नरेन्द्रवत्' ।- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी से घिरे रहने वाले स्थायी भाव की स्थिति राजा के समान हैं। दूसरे शब्दों में, विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी (संचारी) भाव को परिधीय स्थिति और स्थायी भाव को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त है।
(4) रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट (11 वी० सदी) ने काव्यानंद को 'ब्रह्मानंद सहोदर' (ब्रह्मानंद- योगी द्वारा अनुभूत आनंद) कहा है। वस्तुतः रस के संबंध में ब्रह्मानंद की कल्पना का मूल स्रोत तैत्तरीय उपनिषद है जिसमें कहा गया है 'रसो वै सः'- आनंद ही ब्रह्म है।
(5)रस-संप्रदाय के एक अन्य आचार्य, आचार्य विश्वनाथ (14 वी० सदी) ने रस को काव्य की कसौटी माना है। उनका कथन है 'वाक्य रसात्मकं काव्यम्'- रसात्मक वाक्य ही काव्य है।
(6) हिन्दी में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल डॉ० नगेन्द्र आदि। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत के रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की स्थिति को 'ह्रदय की मुक्तावस्था' के रूप में मानते हैं। उनके शब्द हैं : 'लोक-हृदय में व्यक्ति-हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस-दशा है'।