Chhand (Metres)(छन्द)


प्रमुख वर्णिक छंद

(1) इंद्रवज्रा (2) उपेन्द्रवज्रा (3) तोटक (4) वंशस्थ (5) द्रुतविलंबित (6) भुजंगप्रयात (7) वसंततिलका
(8) मालिनी (9) मंदाक्रांता (10) शिखरिणी (11) शार्दूलविक्रीडित (12) सवैया (13) कवित्त

(1) इंद्रवज्रा- प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं। इनका क्रम है- तगण, नगण, जगण तथा अंत में दो गुरु (ऽऽ ।, । । ।, । ऽ।, ऽऽ) । यथा-

तूही बसा है मन में हमारे।
तू ही रमा है इस विश्र्व में भी।।
तेरी छटा है मनमुग्धकारी।
पापापहारी भवतापहारी।।

(2) उपेन्द्रवज्रा- प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- जगण, तगण, जगण और अंत में दो गुरु (। ऽ।, ऽऽ ।, । ऽ।, ऽऽ) । यथा-

बड़ा कि छोटा कुछ काम कीजै।
परन्तु पूर्वापर सोच लीजै।।
बिना विचारे यदि काम होगा।।
कभी न अच्छा परिणाम होगा।।

(3) तोटक- प्रत्येक चरण में चार सगण ( । । ऽ) अर्थात १२ वर्ण होते हैं। यथा -

जय राम सदा सुखधाम हरे।
रघुनायक सायक-चाप धरे।।
भवबारन दारन सिंह प्रभो।
गुणसागर नागर नाथ विभो।।

(4) वंशस्थ- प्रत्येक चरण में 12 वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- जगण, तगण, जगण और रगण (। ऽ।, ऽऽ ।, । ऽ।, ऽ। ऽ) । यथा-

जहाँ लगा जो जिस कार्य बीच था।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता।।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा।
विलोकन को घनश्याम माधुरी।।

(5) द्रुतविलम्बित- इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक नगण (।।।), दो भगण (ऽ।।, ऽ।।)और एक रगण (ऽ।ऽ) के क्रम से 12 वर्ण होते हैं। उदाहरण-

न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ,
सफलता वह पा सकता कहाँ ?

(6) भुजंगप्रयात- इसके प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं। इसमें चार यगण होते हैं। यथा-

अरी व्यर्थ है व्यंजनों की बड़ाई।
हटा थाल तू क्यों इसे साथ लाई।।
वही पार है जो बिना भूख भावै।
बता किंतु तू ही उसे कौन खावै।।

(7) वसंततिलका- इसके प्रत्येक चरण में 14 वर्ण होते हैं। वर्णो के क्रम में तगण ( ऽऽ।), भगण (ऽ।।),
दो जगण (। ऽ।, । ऽ।) तथा दो गुरु ( ऽऽ) रहते हैं। जैसे-

रे क्रोध जो सतत अग्नि बिना जलावे।
भस्मावशेष नर के तन को बनावे।।
ऐसा न और तुझ-सा जग बीच पाया।
हारे विलोक हम किंतु न दृष्टि आया।

(8) मालिनी- इस छन्द में । ऽ वर्ण होते हैं तथा आठवें व सातवें वर्ण पर यति होती है। वर्णों के क्रम में
दो नगण (।।।, ।।।), एक मगन (ऽऽऽ) तथा दो यगण (।ऽऽ, ।ऽऽ) होते हैं; जैसे-

पल-पल जिसके मैं पन्थ को देखती थी,
निशिदिन जिसके ही ध्यान में थी बिताती।

(9) मन्दाक्रान्ता- इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक मगण (ऽऽऽ), एक भगण (ऽ।।), एक नगण (।।।), दो तगण (ऽऽ।, ऽऽ।) तथा दो गुरु (ऽऽ) मिलाकर 17 वर्ण होते हैं। चौथे, छठवें तथा सातवें वर्ण पर यति होती है; जैसे-

तारे डूबे, तम टल गया, छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले, तमचर, जगे, ज्योति फैली दिशा में।।
शाखा डोली तरु निचय की, कंज फूले सरों के।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े, तामसी रात बीती।।

(10) शिखरिणी- इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ), एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण ( ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) होता है। इसमें 17 वर्ण तथा छः वर्णों पर यति होता है; जैसे-

मनोभावों के हैं शतदल जहाँ शोभित सदा।
कलाहंस श्रेणी सरस रस-क्रीड़ा-निरत है।।
जहाँ हत्तंत्री की स्वरलहरिका नित्य उठती।
पधारो हे वाणी, बनकर वहाँ मानसप्रिया।।

(11) शार्दूलविक्रीडित- इसके प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, और अंत में गुरु। यति 12, 7 वर्णों पर होती है। यथा-

सायंकाल हवा समुद्र-तट की आरोग्यकारी यहाँ।
प्रायः शिक्षित सभ्य लोग नित ही जाते इसी से वहाँ।।
बैठे हास्य-विनोद-मोद करते सानंद वे दो घड़ी।
सो शोभा उस दृश्य की ह्रदय को है तृप्ति देती बड़ी।।

(12) सुन्दरी सवैया- जिन छंदों के प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते है, उन्हें 'सवैया' कहते हैं।

यह बड़ा ही मधुर एवं मोहक छंद है। इसका प्रयोग तुलसी, रसखान, मतिराम, भूषण, देव, घनानंद तथा भारतेंदु जैसे कवियों ने किया है। इसके अनेक प्रकार और अनेक नाम हैं; जैसे- मत्तगयंद, दुर्मिल, किरीट, मदिरा, सुंदरी, चकोर आदि।

इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ सगण (।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ) और अन्त में एक गुरु (ऽ) मिलाकर 25 वर्ण होते है; जैसे-

मानुष हों तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हों तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।
पाहन हों तो वही गिरि को जो धरयौ करछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।।

(13) कवित्त- यह वर्णिक छंद है। इसमें गणविधान नहीं होता, इसलिए इसे 'मुक्त वर्णिक छंद' भी कहते हैं।

कवित्त के प्रत्येक चरण में 31 से 33 वर्ण होते हैं। इसके अनेक भेद हैं जिन्हें मनहरण, रूपघनाक्षरी, देवघनाक्षरी आदि नाम से पुकारते हैं।

मनहरण कवित्त का एक उदाहरण लें। इसके प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते हैं। अंत में गुरु होता है। 16, 15 वर्णो पर यति होती है। जैसे-

इंद्र जिमि जंभ पर बाडव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं।
पौन वारिवाह पर संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज हैं।
दावा द्रुमदंड पर चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम-अंस पर कान्ह जिमि कंस पर,

प्रमुख मात्रिक छन्द

(1) चौपाई- यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती है। चरण के अन्त में जगण (।ऽ।) और तगण (ऽऽ।) का आना वर्जित है। तुक पहले चरण की दूसरे से और तीसरे की चौथे से मिलती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। उदाहरणार्थ-

नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुनगन गावन लागे ।।

गुरु पद रज मृदु मंजुल मंजन। नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।
तेहि करि विमल विवेक विलोचन। बरनउँ रामचरित भवमोचन ।।

(2) रोला (काव्यछन्द)- यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। इसके प्रत्येक चरण में 11 और 13 मात्राओं पर यति ही अधिक प्रचलित है। प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है। उदाहरणार्थ-

जो जगहित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोकहित में लग जाता ।।

(3) हरिगीतिका- यह मात्रिक सम छन्द है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं। 16 और 12 मात्राओं पर यति तथा अन्त में लघु-गुरु का प्रयोग ही अधिक प्रचलित है। उदाहरणार्थ-

कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।।

(4) बरवै- यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में 12 और सम चरणों (दूसरे और चौथे) में 7 मात्राएँ होती है। सम चरणों के अन्त में जगण या तगण आने से इस छन्द में मिठास बढ़ती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। जैसे-

वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार।
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ।।

(5) दोहा- यह अर्द्धसममात्रिक छन्द है। इसमें 24 मात्राएँ होती हैं। इसके विषम चरण (प्रथम व तृतीय) में 13-13 तथा सम चरण (द्वितीय व चतुर्थ) में 11-11 मात्राएँ होती हैं; जैसे-

''मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।''

(6) सोरठा- यह भी अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। यह दोहा का विलोम है, इसके प्रथम व तृतीय चरण में 11-11 और द्वितीय व चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएँ होती है; जैसे-

''सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहँसे करुना ऐन चितइ जानकी लखन तन।।''

(7) वीर- इसके प्रत्येक चरण में 31 मात्राएँ होती हैं। 16, 15 पर यति पड़ती है। अंत में गुरु-लघु का विधान है। 'वीर' को ही 'आल्हा' कहते हैं।

सुमिरि भवानी जगदंबा को, श्री शारद के चरन मनाय।
आदि सरस्वती तुमको ध्यावौं, माता कंठ विराजौ आय।।
ज्योति बखानौं जगदंबा कै, जिनकी कला बरनि ना जाय।
शरच्चंद्र सम आनन राजै, अति छबि अंग-अंग रहि जाय।।

(8) उल्लाला- इसके पहले और तीसरे चरणों में 15-15 तथा दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। यथा-

हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि ! संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।।

(9) कुंडलिया- यह 'संयुक्तमात्रिक छंद' है। इसका निर्माण दो मात्रिक छंदों-दोहा और रोला-के योग से होता है। पहले एक दोहा रख लें और उसके बाद दोहा के चौथे चरण से आरंभ कर यदि एक रोला रख दिया जाए तो वही कुंडलिया छंद बन जाता है। जिस शब्द से कुंडलिया प्रारंभ हो, समाप्ति में भी वही शब्द रहना चाहिए- यह नियम है, किंतु इधर इस नियम का पालन कुछ लोग छोड़ चुके हैं। दोहा के प्रथम और द्वितीय चरणों में (13 + 11) 24 मात्राएँ होती हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों (13 + 11) में भी 24 मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार दोहे के चार चरण कुंडलिया के दो चरण बन जाते हैं। रोला सममात्रिक छंद हैं जिसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। प्रारंभ के दो चरणों में 13 और 11 मात्राएँ पर यति होती है तथा अंत के चार चरणों में 11 और 13 मात्राओं पर।

हिन्दी में गिरिधर कविराय कुंडलियों के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं। वैसे तुलसी, केशव आदि ने भी कुछ कुंडलियाँ लिखी हैं। उदाहरण देखें-

दौलत पाय न कीजिए, सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारि कौ, ठाउँ न रहत निदान।।
ठाउँ न रहत निदान, जियन जग में जस लीजै।
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै।।
कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घर तौलत।
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सब ही के दौलत।।

(10) छप्पय- यह संयुक्तमात्रिक छंद है। इसका निर्माण मात्रिक छंदों- रोला और उल्लाला- के योग से होता है। पहले रोला को रख लें जिसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होंगी। इसके बाद एक उल्लाला को रखें। उल्लाला के प्रथम तथा द्वितीय चरणों में (15 + 13) 28 मात्राएँ होंगी तथा तृतीय और चतुर्थ चरणों में भी (15 + 13) 28 मात्राएँ होंगी। रोला के चार चरण तथा उल्लाला के चार चरण- जो यहाँ दो चरण हो गये हैं- मिलकर छप्पय के छह चरण अर्थात छह पाद या पाँव हो जाएँगे। प्रथम चार चरणों में 11, 13 तथा अंत के दो चरणों में 14, 13 मात्राओं पर यति होगी।

जिस प्रकार तुलसी की चौपाइयाँ, बिहारी के दोहे, रसखान के सवैये, पद्माकर के कवित्त तथा गिरिधर कविराय की कुंडलिया प्रसिद्ध हैं; उसी प्रकार नाभादास के छप्पय प्रसिद्ध हैं। उदाहरण के लिए मैथलीशरण गुप्त का एक छप्पय देखें-

जिसकी रज में लोट-पोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।।
हम खेले कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि ! तुमको निरख मग्न क्यों न हों मोद में।।

मुक्तछंद

मुक्तछंद में न तो वर्णों का बंधन होता है और न मात्राओं का ही। कवि का भावोच्छ्वास काव्य की एक पूर्ण इकाई में व्यक्त हो जाता है। मुक्तछंद पर्वत के अंतस्तल से फूटता स्रोत है, जो अपने लिए मार्ग बना लेता है। मुक्त छंद के लिए बने-बनाये ढाँचे अनुपयुक्त होते हैं। उदाहरण के लिए एक मुक्तछंद देखें-

चितकबरे चाँद को छेड़ो मत
शकुंतला-लालित-मृगछौना-सा अलबेला है।
प्रणय के प्रथम चुंबन-सा
लुके-छिपे फेंके इशारे-सा कितना भोला है।
टाँग रहा किरणों के झालर शयनकक्ष में चौबारा
ओ मत्सरी, विद्वेषी ! द्वेषानल में जलना अशोभन है।
दक्षिण हस्त से यदि रहोगे कार्यरत
तो पहनायेगा चाँद कभी न कभी जयमाला।