किसी विस्तृत विवरण, सविस्तार व्याख्या, वक्तव्य, पत्रव्यवहार या लेख के तथ्यों और निर्देशों के ऐसे संयोजन को 'संक्षेपण' कहते है, जिसमें अप्रासंगिक, असम्बद्ध, पुनरावृत्त, अनावश्यक बातों का त्याग और सभी अनिवार्य, उपयोगी तथा मूल तथ्यों का प्रवाहपूर्ण संक्षिप्त संकलन हो।
दूसरे शब्दों में- किसी अनुच्छेद, विवरण, वक्तव्य अथवा निबंधादि के मूल भावों को बचाते हुए उसे संक्षिप्त करना ही संक्षेपण कहलाता है।
इस परिभाषा के अनुसार, संक्षेपण एक स्वतःपूर्ण रचना है। उसे पढ़ लेने के बाद मूल सन्दर्भ को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सामान्यतः संक्षेपण में लम्बे-चौड़े विवरण, पत्राचार आदि की सारी बातों को अत्यन्त संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूप में रखा जाता है।
इसके द्वारा विद्यार्थियों की योग्यता का आकलन किया जाता है कि वह किसी बात को संक्षेप में प्रकट करने की कहाँ तक क्षमता रखता है। जिस अवतरण का संक्षेपण करने कहा जाय, उसे दो-तीन बार पढ़ लें। इससे आपकी समझ में आ जाएगा कि इसका मूल भाव क्या है। इस भाव को समझ रखकर आप देखें कि कौन-सी ऐसी बात है जो उस भाव को पुष्ट करती है और कौन-सी ऐसी है, जिन्हें हटा देने पर भी मूल भाव का महत्त्व कम नहीं होगा।
इसमें हम कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विचारों भावों और तथ्यों को प्रस्तुत करते है। वस्तुतः, संक्षेपण किसी बड़े ग्रन्थ का संक्षिप्त संस्करण बड़ी मूर्ति का लघु अंकन और बड़े चित्र का छोटा चित्रण है। इसमें मूल की कोई भी आवश्यक बात छूटने नहीं पाती। अनावश्यक बातें छाँटकर निकाल दी जाती है और मूल बातें रख ली जाती हैं। यह काम सरल नहीं। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है।
संक्षेपण एक प्रकार का मानसिक प्रशिक्षण है, मानसिक व्यायाम भी। उत्कृष्ट संक्षेपण के निम्नलिखित गुण है-
(1) पूर्णता- संक्षेपण स्वतः पूर्ण होना चाहिए। संक्षेपण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसमें कहीं कोई महत्त्वपूर्ण बात छूट तो नहीं गयी। आवश्यक और अनावश्यक अंशों का चुनाव खूब सोच-समझकर करना चाहिए। यह अभ्यास से ही सम्भव है। संक्षेपण में उतनी ही बातें लिखी जायँ, जो मूल अवतरण या सन्दर्भ में हों, न तो अपनी ओर से कहीं बढ़ाई जाय और न घटाई जाय तथा न मुख्य बात कम की जाय। मूल में जिस विषय या विचार पर जितना जोर दिया गया है, उसे उसी अनुपात में, संक्षिप्त रूप में लिखा जाना चाहिए। ऐसा न हो कि कुछ विस्तार से लिख दिया जाय और कुछ कम। संक्षेपण व्याख्या, आशय, भावार्थ, सारांश इत्यादि से बिलकुल भित्र है।
(2) संक्षिप्तता- संक्षिप्तता संक्षेपण का एक प्रधान गुण है। यद्यपि इसके आकार का निर्धारण और नियमन सम्भव नहीं, तथापि संक्षेपण को सामान्यतया मूल का तृतीयांश होना चाहिए। इसमें व्यर्थ विशेषण, दृष्टान्त, उद्धरण, व्याख्या और वर्णन नहीं होने चाहिए। लम्बे-लम्बे शब्दों और वाक्यों के स्थान पर सामासिक चिह्न लगाकर उन्हें छोटा बनाना चाहिए। यदि शब्दसंख्या निर्धारित हो, तो संक्षेपण उसी सीमा में होना चाहिए। किन्तु, इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाय कि मूल की कोई भी आवश्यक बात छूटने न पाय।
(3) स्पष्टता- संक्षेपण की अर्थव्यंजना स्पष्ट होनी चाहिए। मूल अवतरण का संक्षेपण ऐसा लिखा जाय, जिसके पढ़ने से मूल सन्दर्भ का अर्थ पूर्णता और सरलता से स्पष्ट हो जाय। ऐसा न हो कि संक्षेपण का अर्थ स्पष्ट करने के लिए मूल सन्दर्भ को ही पढ़ना पड़े। इसलिए, स्पष्टता के लिए पूरी सावधानी रखने की जरूरत होगी। संक्षेपक (precis writer) को यह बात याद रखनी चाहिए कि संक्षेपण के पाठक के सामने मूल सन्दर्भ नहीं रहता। इसलिए उसमें (संक्षेपण में) जो कुछ लिखा जाय, वह बिलकुल स्पष्ट हो।
(4) भाषा की सरलता- संक्षेपण के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसकी भाषा सरल और परिष्कृत हो। क्लिष्ट और समासबहुल भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। भाषा को किसी भी हालत में अलंकृत नहीं होना चाहिए। जो कुछ लिखा जाय, वह साफ-साफ हो; उसमें किसी तरह का चमत्कार या घुमाव-फिराव लाने की कोशिश न की जाय। इसलिए, संक्षेपण की भाषा सुस्पष्ट और आडम्बरहीन होनी चाहिए। तभी उसमें सरलता आ सकेगी।
(5) शुद्धता- संक्षेपण में भाव और भाषा की शुद्धता होनी चाहिए। शुद्धता से हमारा मतलब यह है कि संक्षेपण में वे ही तथ्य तथा विषय लिखे जायँ, जो मूल सन्दर्भ में हो। कोई भी बात अशुद्ध, अस्पष्ट या ऐसी न हों, जिसके अलग-अलग अर्थ लगाये जा सकें। इसमें मूल के आशय को विकृत या परिवर्तित करने का अधिकार नहीं होता और न अपनी ओर से किसी तरह की टीका-टिप्पणी होना चाहिए। भाषा व्याकरणोचित होनी चाहिए, टेलीग्राफिक नहीं।
(6) प्रवाह और क्रमबद्धता- संक्षेपण में भाव और भाषा का प्रवाह एक आवश्यक गुण है। भाव क्रमबद्ध हों और भाषा प्रवाहपूर्ण। क्रम और प्रवाह के
सन्तुलन से ही संक्षेपण का स्वरूप निखरता है। वाक्य सुसम्बद्ध और गठित हों प्रवाह बनाये रखने के लिए वाक्यरचना में
जहाँ-तहाँ 'अतः', 'अतएव', 'तथापि' जैसे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। एक भाव दूसरे भाव से सम्बद्ध हो। उनमे तार्किक क्रमबद्धता
(logical sequence) रहनी चाहिए। सारांश यह कि संक्षेपण में तीन गुणों का होना बहुत जरूरी है-
(i) संक्षिप्तता (brevity), (ii) स्पष्टता (clearness), और (iii) क्रमबद्धता (coherence) ।
संक्षेपण दो प्रकार के होते है-
(1) किसी स्वतंत्र विषय (Continuous matter) का
(2) पत्र-व्यवहार (Correspondence) का।
किसी पत्र, लेख, वक़्तव्य, भाषण आदि स्वतंत्र विषय का संक्षेपण पत्र-व्यवहार के संक्षेपण से भिन्न होगा। पत्राचार या पत्र-व्यवहार के संक्षेपण
के लिए प्रायः दो पद्धतियाँ चलती हैं-
(1) प्रवाह-संक्षेपण
(2) तालिका-संक्षेपण।
(1) प्रवाह-संक्षेपण- प्रवाह-संक्षेपण में समस्त पत्राचार का संक्षेप पत्रों के क्रमानुसार वर्णनात्मक रूप में दे दिया जाता हैं।
(2) तालिका-संक्षेपण- तालिका-संक्षेपण में एक तालिका बनायी जाती हैं और उसके स्तम्भों में प्रत्येक पत्र का विवरण दे दिया जाता हैं।
इस तालिका में सामान्यतः निम्र स्तम्भ होते हैं-
क्रम-संख्या | पत्र-संख्या | दिनांक | प्रेषक | प्रेषिती | पत्र का विषय (संक्षिप्त रूप) |
---|---|---|---|---|---|
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 |
पहले स्तम्भ में पत्रों की क्रम-संख्या क्रमानुसार अंकित करनी चाहिए, दूसरे में पत्र में दी गयी संख्या लिखी जाय, तीसरे में पत्र का दिनांक लिखा जाय, चौथे में प्रेषक अर्थात पत्र भेजने वाले का नाम और पता लिखना चाहिए, पाँचवें में जिसे पत्र भेजा जाय उसका नाम-पता और छठें में प्रत्येक पत्र का विषय संक्षेप में लिखा जाना चाहिए इस प्रकार के संक्षेपण की आवश्यकता तब पड़ती हैं जब अनेक लम्बे-लम्बे पत्रों अथवा पत्राचारों का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करना होता हैं।
यधपि संक्षेपण के निश्र्चित नियम नहीं बनाये जा सकते, तथापि अभ्यास के लिए कुछ सामान्य नियमों का उल्लेख किया जा सकता है। वे इस प्रकार है-
(1) मूल सन्दर्भ को ध्यानपूर्वक पढ़ें। जब तक उसका सम्पूर्ण भावार्थ (substance) स्पष्ट न हो जाय, तब तक संक्षेपण लिखना आरम्भ नहीं करना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि मूल अवतरण कम-से-कम तीन बार पढ़ा जाय।
(2) मूल के भावार्थ को समझ लेने के बाद आवश्यक शब्दों, वाक्यों अथवा वाक्यखण्डों को रेखांकित करें, जिनका मूल विषय से सीधा सम्बन्ध हो अथवा जिनका भावों या विचारों की अन्विति में विशेष महत्त्व हो। इस प्रकार, कोई भी तथ्य छूटने न पायेगा।
(3) संक्षेपण मूल सन्दर्भ का संक्षिप्त रूप है, इसलिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसमें अपनी ओर से किसी तरह की टीका-टिप्पणी अथवा आलोचना-प्रत्यालोचना न हो। संक्षेपण के लेखक को न तो किसी मतवाद के खण्डन का अधिकार है और न अपनी ओर से मौलिक या स्वतन्त्र विचारों को जोड़ने की छूट है। उसे तो मूल के भावों अथवा विचारों के अधीन रहना है और उन्हें ही संक्षेप में लिखना है।
(4) संक्षेपण को अन्तिम रूप देने के पहले रेखांकित वाक्यों के आधार पर उसकी रुपरेखा तैयार करनी चाहिए, फिर उसमें उचित और आवश्यक संशोधन (जोड़-घटाव) करना चाहिए। यहाँ एक बात ध्यान रखने की यह है कि मूल सन्दर्भ के विचारों की क्रमव्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन किया जा सकता है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि जिस क्रम में मूल लिखा गया है, उसी क्रम में संक्षेपण भी लिखा जाय। लेकिन यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसमें विचारों का तारतम्य बना रहे। ऐसा मालूम हो कि एक वाक्य का दूसरे वाक्य से सीधा सम्बन्ध बना हुआ है।
(5) उक्त आलेख्य (Draft) को अन्तिम रूप देने के पहले उसे एक-दो बार ध्यान से पढ़ना चाहिए, ताकि कोई भी आवश्यक विचार छूटने न पाय। जहाँ तक हो सके, वह अत्यन्त संक्षिप्त हो। यदि शब्द संख्या पहले से निर्धारित हो, तो यह प्रयत्न करना चाहिए कि संक्षेपण में उस निर्देश का पालन किया जाय। सामान्यतया उसे मूल सन्दर्भ का एक-तिहाई होना चाहिए।
(6) अन्त में, संक्षेपण को व्याकरण के सामान्य नियमों के अनुसार एक क्रम में लिखना चाहिए।
(7) उपर्युक्त सारी क्रियाओं के बाद संक्षेपण के भावों और विचारों के अनुकूल एक संक्षिप्त शीर्षक दे देना चाहिए। शीर्षक ऐसा हो, जो सभी तथ्यों को समेटने की क्षमता रखे। उसे सारी बातों का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। जहाँ तक संभव हो शीर्षक लघु और कम-से-कम शब्दों वाला होना चाहिए।
(1) संक्षेपण में विशेषणों और क्रियाविशेषणों के लिए स्थान नहीं है। इन्हें निकाल देना चाहिए। संक्षेपण की शैली अलंकृत नहीं होना चाहिए; उसे हर हालत में आडम्बरहीन होना चाहिए।
(2) संक्षेपण में मूल के उन्हीं शब्दों को रखना चाहिए, जो अर्थव्यंजना में सहायक हों। जहाँ तक सम्भव हो, मूल के शब्दों के बदले दूसरे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि मूल के भावों और विचारों में अर्थ का उलट-फेर न होने पाय।
(3) संक्षेपण में मूल अवतरण के वाक्यखण्डों के लिए एक-एक शब्द का प्रयोग होना चाहिए, जो मूल के भावोत्कर्ष में अधिक-से-अधिक सहायक सिद्ध हों।
कुछ उदाहरण इस प्रकार है-
वाक्यखण्ड | एक शब्द |
एक से अधिक पति रखने की प्रथा | बहुपतित्व |
जिसका मन अपने काम में नहीं लगता | अन्यमनस्क |
जहाँ नदियों का मिलन हो | संगम |
किसी विषय का विशेष ज्ञान रखनेवाला | विशेषज्ञ |
कष्ट से होनेवाला काम | कष्टसाध्य |
जहाँ मुहावरों और कहावतों का प्रयोग हुआ हों, वहाँ उनके अर्थ को कम-से-कम शब्दों में लिखना चाहिए। मुहावरे के लिए मुहावरा रखना ठीक न होगा।
(4) संक्षेपण की शैली अलंकृत नहीं होनी चाहिए, इसलिए उपमा (simile), उत्प्रेक्षा (metaphor) या अन्य अलंकारों का प्रयोग नहीं होना चाहिए; अप्रासंगिक बातों, उद्धरणों और विचारों की पुनरावृत्ति भी हटा देनी चाहिए। संक्षेपण की भाषाशैली स्पष्ट और सरल होनी चाहिए, ताकि पढ़ते ही उसका मर्म समझ में आ जाय।
(5) संक्षेपण की भाषाशैली व्याकरण के नियमों से नियंत्रित होनी चाहिए, वह टेलिग्राफिक न हो।
(6) संक्षेपण में परोक्ष कथन (indirect narration) सर्वत्र अन्यपुरुष में होना चाहिए। जिस तरह किसी समाचारपत्र का संवाददाता
अपने वाक्यों की रचना में परोक्ष कथन का प्रयोग करता है, उसी तरह संक्षेपण में उसका व्यवहार होना चाहिए। संवादों के संक्षेपण में
इसका उपयोग सर्वथा अनिवार्य है। ऐसा करते समय एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हिन्दी में जब वाक्यों को परोक्ष ढंग से लिखना होता है,
तब सर्वनाम, क्रिया या काल को बदलने की जरूरत नहीं होती, केवल कि जोड़ देने से काम चल जाता है। लेकिन अँगरेजी में ऐसा नहीं होता।
एक उदाहरण इस प्रकार है-
प्रत्यक्ष वाक्य (Direct narration)- राम ने कहा-'मैं जाता हूँ।'
परोक्ष वाक्य (Indirect narration)- राम ने कहा कि मैं जाता हूँ।
(7) संक्षेपण की वाक्यरचना में लम्बे-लम्बे वाक्यों और वाक्यखण्डों का व्यवहार नहीं होना चाहिए; क्योंकि उसे हर हालत में सरल और स्पष्ट होना चाहिए, ताकि एक ही पाठ में मूल के सारे भाव समझ में आ जायँ। अतः संक्षेपण में शब्द इकहरे, वाक्य छोटे, भाव सरल और शैली आडम्बरहीन होनी चाहिए।
(8) संक्षेपण में शब्दों के प्रयोग में काफी संयम और कृपणता से काम लेना चाहिए। कोई भी शब्द बेकार और बेजान न हो। उन्हीं शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, जिनका प्रासंगिक महत्त्व है। मूल के उन्हीं शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, जो भावव्यंजना और प्रसंगों के अनुकूल सार्थक है, जिनके बिना काम नहीं चल सकता। शब्दों को दुहराने की कोई आवश्यकता नहीं। अप्रचलित शब्दों के स्थान पर प्रचलित और सरल शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
(9) संक्षेपण की भाषा शैली में साहित्यक चमत्कार और काव्यात्मक लालित्य लाने का प्रयत्न व्यर्थ है। इसलिए, यहाँ न तो भाषा को सजाने-सँवारने की आवश्यकता है और न उसके भावों को ललित-कलित बनाने की। जो कुछ लिखा जाय, वह साफ हो, स्पष्ट हो। कल्पना के पंख लगाकर उड़ना यहाँ नहीं हो सकता। संक्षेपण की कला तलवार की धार पर चलने की कला है। इसके लिए कुशाग्र बुद्धि, गहरी पैठ और तीव्र मनोयोग की आवश्यकता है। यह काम अभ्यास से ही सम्भव है। अतएव आवश्यक है कि संक्षेपण के लेखक की दृष्टि हर तरह वस्तुवादी हो, भावुक नहीं।
(10) संक्षेपण से समानार्थी शब्दों को हटा देना चाहिए। ये एक ही भाव या विचार को बार-बार दुहराते हैं। इसे पुनरुक्तिदोष कहते हैं। अँगरेजी में इसे Verbosity कहते हैं। उदाहरणार्थ- 'आजादी स्वतन्त्रता, स्वाधीनता, स्वच्छन्दता और मुक्ति को कहते हैं' । यहाँ 'आजादी' के लिए अनेक समानार्थी शब्दों का प्रयोग हुआ है। भाषण में प्रभाव जताने के लिए ही वक्ता इस प्रकार की शैली का सहारा लेता है। संक्षेपण में ऐसे शब्दों को हटाकर इतना ही लिखना चाहिए कि 'आजादी मुक्ति का दूसरा नाम है'। संक्षेपण की कला कम-से-कम शब्दों में निखरती है।
(11) पुनरुक्तिदोष शब्दों में ही नहीं, भावों अथवा विचारों में भी होता है। कभी-कभी एक ही वाक्य में एक ही बात को विभित्र रूपों में रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए, एक वाक्य इस प्रकार है- 'रंगमंच पर कलाकार क्रमशः एक-एक कर आये' । इस वाक्य में क्रमशः शब्द एक-एक कर के भाव को दुहराता है। दोनों का एक ही अर्थ है, इसलिए ऐसे शब्दों को हटा देना चाहिए। अँगरेजी में इस दोष को Tautology कहते हैं।
(12) अन्त में, संक्षेपण में प्रयुक्त शब्दों की संख्या लिख देनी चाहिए ।
(13) पत्र-व्यवहार के संदर्भ में जहाँ किसी अधिकारी का नाम और पद दोनों दिये हों, वहाँ नाम हटा कर केवल पद का उल्लेख करना चाहिए।
निष्कर्ष
सारांश यह कि संक्षेपण की लेखनविधि अन्वय, सारांश, भावार्थ, आशय, मुख्यार्थ, आलेख (रुपरेखा) इत्यादि से बिलकुल भित्र है। जिस सन्दर्भ का संक्षेपण लिखना हों, उसे सावधानी से पढ़ लिया जाय और उसके भावार्थ तथा विषय को अच्छी तरह समझने की चेष्टा की जाय। सम्भव है कि एक बार पढ़ने से कुछ भाव स्पष्ट न हों। अतः उसे दुबारा-तिबारा पढ़ा जाय और उसके महत्त्वपूर्ण अंशों को रेखांकित किया जाय। अब इन महत्त्वपूर्ण अंशों के आधार पर एक संक्षिप्त प्रारूप (draft) तैयार किया जाय।
इसे सामान्यतया मूल सन्दर्भ की एक-तिहाई के बराबर होना चाहिए। यदि कहीं कुछ अस्पष्टता रह जाय, तो फिर तीसरी बार इस दृष्टि से मूल प्रारूप को पढ़ा जाय कि कहीं भूल से कोई आवश्यक बात छूट तो न गयी है। अन्तिम रूप से जब संक्षेपण तैयार हो जाय, तब उसका एक उपयुक्त, किन्तु छोटा-सा शीर्षक भी दे दिया जाय। अन्त में, समस्त संक्षेपण को इस दृष्टि से एक बार फिर पढ़ लिया जाय कि भाषा में प्रवाह कहीं विच्छित्र तो नहीं हुआ या क्रम तो भंग नहीं हुआ। यदि कहीं भाषा शिथिल हो गयी हो या कोई शब्द उपयुक्त नहीं जँचता हो, तो उसमें सुधार कर दिया जाय।