आरक्षण-नीति (Aarakshan Niti)

Generic placeholder image

आरक्षण-नीति

यदि आरक्षण का उद्द्देश्य देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, तो यह बात अब निर्णायक रूप से कही जा सकती है कि आरक्षण की मौजूदा प्रणाली असफल हो गई है। सामाजिक न्याय का सिद्धान्त वास्तव में वहीं लागू हो सकता है, जहाँ समाज के नेतृत्व वर्ग की नीयत स्वच्छ हो। विशिष्ट सामाजिक बनावट के कारण भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को जिस तरीके से लागू किया गया, उसमें तो उसे असफल होना ही था। भारतीय संविधान में पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान का वर्णन इस प्रकार है- अनुच्छेद 15 (समानता का मौलिक अधिकार) द्वारा, राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा, लेकिन अनुच्छेद 15 (4) के अनुसार इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खण्ड (2) की कोई बात राज्य को शौक्षिक अथवा सामाजिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों के किन्हीं वर्गों की अथवा अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए कोई विशेष व्यवस्था बनाने से नहीं रोक सकती, अर्थात राज्य चाहे तो इनके उत्थान के लिए आरक्षण या शुल्क में कमी अथवा अन्य उपलब्ध कर सकती है जिसे कोई भी व्यक्ति उसकी विधि-मान्यता पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता कि यह वर्ग-विभेद उत्पन्न करते हैं।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में आरक्षण लागू है। मण्डल आयोग की संस्तुतियों के लागु होने के बाद 1993 से ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण लागू है। 2006 के बाद से केन्द्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया। महिलाओं को भी विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण की सुविधा का लाभ मिल रहा है। कुल मिलाकर समाज के अत्यधिक बड़े तबके को आरक्षण की सुभिधाओं का लाभ प्राप्त हो रहा है। लेकिन इस आरक्षण-नीति का परिणाम क्या निकला ? अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षण लागू होने के लगभग 62 वर्ष बीत चुके हैं और मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के भी लगभग दो दशक पूरे हो चुके है लेकिन क्या सम्बन्धित पक्षों को उसका पर्याप्त फायदा मिला ?

सत्ता एवं अपने निहित स्वार्थों के कारण आरक्षण की नीति की समीक्षा नहीं करती। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए मौजूद आरक्षण की समीक्षा तो सम्भव भी नहीं है क्योंकि इससे सम्बन्ध वास्तविक आँकड़े का पता ही नहीं है। चूँकि आँकड़े नहीं है, इसलिए योजनाओं का कोई लक्ष्य भी नहीं है। आँकड़े के अभाव में इस देश के संसाधनों, अवसरों और राजकाज में किस जाति और जाति समूह की कितनी हिस्सेदारी है, इसका तुलनात्मक अध्ययन ही सम्भव नहीं है। सैम्पल सर्वे (नमूना सर्वेक्षण) के आँकड़े इसमें कुछ मदद कर सकते है, लेकिन इतने बड़े देश में चार-पाँच हजार के नमूना सर्वेक्षण से ठोस नतीजे नहीं निकाले जा सकते। सरकार ने 104 वें संविधान संशोधन के द्वारा देश में सरकारी विद्यालयों के साथ-साथ गैर सहायता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थानों में भी अनुसूचित जातियों/जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को आरक्षण का लाभ प्रदान कर दिया है।

सरकार के इस निर्णय का समर्थन और विरोध दोनों हुआ। वास्तव में निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू होना अत्यधिक कठिन है क्योंकि निजी क्षेत्र लाभ से समझौता नहीं कर सकते, यदि गुणवत्ता प्रभावित होने से ऐसा होता हो। पिछले कई वर्षों से आरक्षण के नाम पर राजनीति हो रही है, आए दिनों कोई-न कोई वर्ग अपने लिए आरक्षण की माँग कर बैठता है एवं इसके लिए आन्दोलन करने पर उतारू हो जाता है। इस तरह देश में अस्थिरता एवं अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आर्थिक एवं सामजिक पिछड़ेपन के आधार पर निम्न तबके के लोगों के उत्थान के लिए उन्हें सेवा एवं शिक्षा में आरक्षण प्रदान करना उचित है, लेकिन जाति एवं धर्म के आधार पर तो आरक्षण को कतई भी उचित नहीं कहा जा सकता।