त्यौहार जीवन की एकरसता को तोड़ने और उत्सव के द्वारा नई रचनात्मक स्फूर्ति हासिल करने के निमित्त हुआ करते हैं। संयोग से मेल-मिलाप का अनूठा त्यौहार होने के कारण होली में यह स्फूर्ति हासिल करने और साझेपन की भावना को विस्तार देने के अवसर ज्यादा हैं। देश में मनाये जाने वाले धार्मिक व सामाजिक त्यौहारों के पीछे कोई न कोई घटना अवश्य जुड़ी हुई है। शायद ही कोई ऐसी महत्वपूर्ण तिथि हो, जो किसी न किसी त्यौहार या पर्व से संबंधित न हो। दशहरा, रक्षाबन्धन, दीपावली, रामनवमी, वैशाखी, बसंत पंचमी, मकर संक्रांति, बुद्ध पूर्णिमा आदि बड़े धार्मिक त्यौहार है। इनके अलावा कई क्षेत्रीय त्यौहार भी हैं। भारतीय तीज त्यौहार साझा संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक रहे हैं।
रंगों का त्यौहार होली धार्मिक त्यौहार होने के साथ-साथ मनोरंजन का उत्सव भी है। यह त्यौहार अपने आप में उल्लास, उमंग तथा उत्साह लिए होता है। इसे मेल व एकता का पर्व भी कहा जाता है।
हंसी ठिठोली के प्रतीक होली का त्यौहार रंगों का त्यौहार कहलाता है। इस त्यौहार में लोग पुराने बैरभाव त्याग एक दूसरे को गुलाल लगा बधाई देते हैं और गले मिलते हैं। इसके पहले दिन पूर्णिमा को होलिका दहन और दूसरे दिन के पर्व को धुलेंडी कहा जाता है। होलिका दहन के दिन गली-मौहल्लों में लकड़ी के ढेर लगा होलिका बनाई जाती है। शाम के समय महिलायें-युवतियां उसका पूजन करती हैं। इस अवसर पर महिलाएं श्रृंगार आदि कर सजधज कर आती हैं। बृज क्षेत्र में इस त्यौहार का रंग करीब एक पखवाड़े पूर्व चढ़ना शुरू हो जाता है।
होली भारत का एक ऐसा पर्व है जिसे देश के सभी निवासी सहर्ष मनाते हैं। हमारे तीज त्यौहार हमेशा साझा संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक रहे हैं। यह साझापन होली में हमेशा दिखता आया है। मुगल बादशाहों की होली की महफिलें इतिहास में दर्ज होने के साथ यह हकीकत भी बयां करती है कि रंगों के इस अनूठे जश्न में हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी बढ़-चढ़कर शामिल होते हैं। मीर, जफर और नजीर की शायरी में होली की जिस धूम का वर्णन है, वह दरअसल लोक परंपरा और सामाजिक बहुलता का ही रंग है। होली की पीछे एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है।
इस संबंध में कहा जाता है कि दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने अपनी प्रजा को भगवान का नाम न लेने का आदेश दे रखा था। किन्तु उसके पुत्र प्रहलाद ने अपने पिता के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। उसके पिता द्वारा बार-बार समझाने पर भी जब वह नहीं माना तो दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने उसे मारने के अनेक प्रयास किए, किन्तु उसका वह बाल भी बांका न कर सका।
प्रहलाद जनता में काफी लोकप्रिय भी था। इसलिए दैत्यराज हिरण्यकश्यप को यह डर था कि अगर उसने स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रहलाद का वध किया तो जनता उससे नाराज हो जाएगी। इसलिए वह प्रहलाद को इस तरह मारना चाहता था कि उसकी मृत्यु एक दुर्घटना जैसी लगे। दैत्यराज हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में जलेगी नहीं। मान्यता है कि होलिका नित्य प्रति कुछ समय के लिए अग्नि पर बैठती थी और अग्नि का पान करती थी।
हिरण्यकश्यप ने होलिका की मदद से प्रहलाद को मारने की ठानी। उसने योजना बनाई कि होलिका प्रहलाद को लेकर आग में बैठ जाए तो प्रहलाद मारा जाएगा और होलिका वरदान के कारण बच जाएगी। उसने अपनी उस योजना से होलिका को अवगत कराया। पहले तो होलिका ने इसका विरोध किया लेकिन बाद में दवाब के कारण उसे हिरण्यकश्यप की बात माननी पड़ी।
योजना के अनुसार होलिका प्रहलाद की गोद में लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठ गई और लकड़ियों में आग लगा दी गई। प्रभु की कृपा से वरदान अभिशाप बन गया। होलिका जल गई, मगर प्रहलाद को आंच तक न पहुँची। तब से लेकर हिन्दू फाग से एक दिन पहले होलिका जलाते हैं। इस त्यौहार को ऋतुओं से संबंधित भी बताया जाता है। इस अवसर पर किसानों द्वारा अपने खेतों में उगाई फसलें पककर तैयार हो जाती हैं। जिसे देखकर वे झूम उठते हैं। खेतों में खड़ी पकी फसल की बालियों को भूनकर उनके दाने मित्रों व सगे-संबंधियों में बांटते हैं।
होलिका दहन के अगले दिन धुलेंडी होती है। इस दिन सुबह आठ बजे के बाद से गली-गली में बच्चे एक-दूसरे पर रंग व पानी डाल होली की शुरूआत करते हैं। इसके बाद तो धीरे-धीरे बड़ों में भी होली का रंग चढ़ना शुरू हो जाता है और शुरू हो जाता है होली का हुड़दंग। अधेड़ भी इस अवसर पर उत्साहित हो उठते हैं। दस बजते-बजते युवक-युवतियों की टोलियां गली-मौहल्लों से निकल पड़ती हैं। घर-घर जाकर वे एक दूसरे को गुलाल लगा व गले मिल होली की बधाई देते हैं।
गलियों व सड़कों से गुजर रही टोलियों पर मकानों की छतों पर खड़े लोगों द्वारा रंग मिले पानी की बाल्टियां उंडेली जाती है। बच्चे पिचकारी से रंगीन पानी फेंककर व गुब्बारे मारकर होली का आनन्द लेते हैं। चारों ओर चहल-पहल दिखाई देती है। जगह-जगह लोग टोलियों में एकत्र हो ढोल की थाप पर होली है भई होली है की तर्ज पर गाने गाते हैं।
वृद्ध लोग भी इस त्यौहार पर जवान हो उठते हैं। उनके मन में भी उमंग व उत्सव का रंग चढ़ जाता है। वे आपस में बैठ गप-शप व ठिठोली में मस्त हो जाते है और ठहाके लगाकर हंसते हैं। अपराहन दो बजे तक फाग का खेल समाप्त हो जाता है। घर से होली खेलने बाहर निकले लोग घर लौट आते हैं। नहा-धोकर शाम को फिर बाजार में लगे मेला देखने चल पड़ते हैं।
मुगल शासन काल में भी होली अपना एक अलग महत्व रखती थी। जहांगीर ने अपने रोजनामचे तुजुक-ए-जहांगीर में कहा है कि यह त्यौहार हिन्दुओं के संवत्सर के अंत में आता है। इस शाम लोग आग जलाते हैं जिसे होली कहते हैं। अगली सुबह होली की राख एक-दूसरे पर फेंकते व मलते हैं। अल बरुनी ने अपने यात्रा वृत्तांत में होली का बड़े सम्मान के साथ उल्लेख किया है।
ग्यारहवीं सदी की शुरूआत में जितना वह देख सका, उस आधार पर उसने बताया कि होली पर अन्य दिनों से अलग हटकर पकवान बनाए जाते हैं। इसके बाद इन्हें ब्राह्मणों को देने के बाद आपस में आदान-प्रदान किया जाता है। अंतिम मुगल बादशाह अकबरशाह सानी और बहादुरशाह जफर खुले दरबार में होली खेलने के लिए प्रसिद्ध थे। बहादुरशाह जफर ने अपनी एक रचना में होली को लेकर उन्होंने कहा है कि-
क्यों मोपे रंग की डारे पिचकारी
देखो सजन जी दूंगी मैं गारी
भाग सकूँ मैं कैसे मोसो भागा नहिं जात
ठाड़ी अब देखूं और तो सनमुख गातइस दिन अपने आप में एक बुराई लिए हुए भी है। लोग मदिरापान आदि कर आपस में ही लड़ पड़ते हैं। वे उमंग व उत्साह के इस त्यौहार को विवाद में बदल देते हैं। कुछ सामाजिक संस्थाओं द्वारा इस दिन शाम को हास्य सम्मेलन, कवि गोष्ठियां आदि आयोजित की जाती हैं, मूर्ख जुलूस निकाले जाते हैं एवं महामूर्ख सम्मेलन होते हैं।