बकरीद मुसलमानों का बड़ा ही पवित्र पर्व है। इसे ईद-उज्-जुहा भी कहते हैं। यह पर्व एक महान त्यागवीर के अनुपम बलिदान की याद दिलाता है। इस त्यागवीर भक्त का नाम था इब्राहीम।
महात्मा इब्राहीम के दो लड़के थे। वे अपने छोटे लड़के इस्माइल को अधिक प्यार करते थे। इसे देखकर शैतान ने सोचा कि यह अच्छा मौका है, परमात्मा से इब्राहीम की शिकायत कर उन्हें दंड दिलाना चाहिए। शैतान ने भगवान से कहा, ''यह देखिए, अपने भक्त की लीला! आप समझते हैं कि वह सबसे अधिक आपसे प्रेम करता है, परंतु आपसे अधिक प्रेम तो वह अपने पुत्र से करता है।'' उसी दिन अल्लाह ताला ने इब्राहीम को सपने में कहा- तुम कुर्बानी दो। भक्त इब्राहीम ने पशु की कुर्बानी दी, किंतु फिर रात में उन्हें प्रभु ने वही कहा। इब्राहीम ने बड़ी विनम्रता से स्वप्न में भगवान से कहा- मेरे मालिक! तू मुझसे किसकी कुर्बानी चाहता है? ईश्वर ने कहा- तेरे प्यारे बेटे की। मालिक की मर्जी सुनकर इब्राहीम को तनिक भी कष्ट न हुआ। उन्होंने अपने जीवन की डोर प्रभु की इच्छा पर छोड़ दी। आदेश की पूर्ति के लिए दूसरे दिन अपने बेटे इस्माइल को बलिदान-गृह की ओर ले चले। रास्ते में शैतान ने इस्माइल और उनकी माँ को बहुत बहकाया। इस्माइल ने अपने पिता से कहा- ''पिताजी! आप मेरे हाथ-पाँव बाँध दें। आप कपड़े से मेरा बदन ढक दें। ऐसा न हो कि बेटे के प्रति आपकी ममता आपको अपने मार्ग से विचलित कर दे।'' इब्राहीम अपने ह्रदय पर पत्थर रखकर, आँसू की बाढ़ भीतर ही रोके, अपने पुत्र की गरदन पर छुरी चलाने को तैयार थे। भगवान महात्मा इब्राहीम की अपार भक्ति पर द्रवित हुए। उन्होंने अपने भक्त से कहा कि तुम परीक्षा में सफल हुए। उन्होंने उनके पुत्र इस्माइल के बदले एक दुम्बा (वह भेड़ जिसकी दुम मांसल होती है) की बलि लेना स्वीकार किया।
इसी घटना की याद में ज़िल्हिज्जा महीने की दसवीं तारीख से यह पर्व मनाया जाता है। आगे चलकर इन्हीं इस्माइल के वंश में इस्लाम धर्म के पैगंबर हजरत मुहम्मद का जन्म हुआ और बलिदान की महिमा समझाने के लिए हजरत मुहम्मद ने यह परंपरा आगे बढ़ायी। कुर्बानी का यह पर्व दसवीं ज़िल्हिज्जा से शुरू होता है और तीन दिनों तक यह रस्म चलती है। 10वीं तारीख को हज करनेवाले मक्का (हजरत मुहम्मद की जन्मभूमि) जाते हैं और सभी हाजी कुर्बानी की रस्म काबा (मक्का) में अदा करते हैं। इस तारीख को दस बजे दिन के पहले तक ईदगाहों में लोग जमा होते हैं और ईद की तरह ही दो रिकअत नमाज छह तकबीरों में अदा करते हैं। हर रिकअत (क़याम= खड़ा होना, रुकूअ= झुकना, कऊद= घुटनों पर बैठना, सुजूद= सिजदा या मत्था टेकना) में तीन बार तकबीर अर्थात 'अल्लाहो अकबर' (ईश्वर सबसे बड़ा है) कहते हैं। नमाज के बाद खुतबा अर्थात अभिभाषण होता है जिसे इमाम अर्थात उपदेशक पढ़ता है। तमाम नमाजी इस खुतबे को गौर से सुनते हैं। इस अभिभाषण में वह हजरत इब्राहीम और इस्माइल की करुण कथा का वर्णन करता है। वह यह भी बतलाता है कि किस और कैसे पशु का बलिदान करना चाहिए। 'कानी गाय ब्राह्मण को दान' वाली कहावत चरितार्थ न हो। काने, अंधे, बीमार पशु की कुर्बानी नहीं होनी चाहिए। अभिभाषण की समाप्ति के बाद सभी नमाज पढ़नेवाले एक-दूसरे से गले मिलते है और ईद की तरह ही ख़ुशी मनाते हैं।
नमाज के बाद सभी लोग घर आते हैं। जिनके लिए संभव है, वे अपने घरों में कुर्बानी करते हैं। कुर्बानी के गोश्त को तीन भागों में बाँटते हैं- एक भाग कुर्बानी करनेवाले का होता है। दूसरा भाग संबंधियों और पड़ोसियों में बाँटा जाता है तथा तीसरा भाग गरीबों और भिखारियों में बाँटा जाता है। चमड़े से जो आमदनी होती है, उसे यतीमख़ानों में दे देते हैं।
बकरीद की यह घटना हिन्दुओं के राजा मयूरध्वज की घटना की याद दिलाती है। यदि कोई मनुष्य प्रभु के चरणों पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हो जाय, तो भगवान उसे अपने आशीर्वाद से सींचकर अमर कर देते हैं। बकरीद वस्तुतः त्याग और बलिदान की याद दिलानेवाला, उसका महत्त्व समझानेवाला महान पर्व है।