(Poetry)-काव्य


  • 'जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज कवि शेली ने की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का।' -आचार्य शुक्ल
  • 'गोपियों का वियोग-वर्णन, वर्णन के लिए ही है उसमें परिस्थितियों का अनुरोध नहीं है। राधा या गोपियों के विरह में वह तीव्रता और गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक वन में बैठी सीता के विरह में है।' -आचार्य शुक्ल
  • अति मलीन वृषभानु कुमारी।/छूटे चिहुर वदन कुभिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी। -सूरदास
  • ज्यों स्वतंत्र होई त्यों बिगड़हिं नारी
    (जिमी स्वतंत्र भए बिगड़हिंनारी) -तुलसीदास
  • सास कहे ननद खिजाये राणा रहयो रिसाय
    पहरा राखियो, चौकी बिठायो, तालो दियो जराय। -मीरा
  • संतन ठीग बैठि-बैठि लोक लाज खोई -मीरा
  • या लकुटि अरु कंवरिया पर
    राज तिहु पुर को तजि डारो -रसखान
  • काग के भाग को का कहिये,
    हरि हाथ सो ले गयो माखन रोटी -रसखान
  • मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकुल गांव के ग्वारन -रसखान
  • 'जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र है।' -आचार्य शुक्ल
  • रचि महेश निज मानस राखा
    पाई सुसमय शिवासन भाखा -तुलसीदास
  • मंगल भवन अमंगल हारी
    द्रवहु सुदशरथ अजिर बिहारी -तुलसीदास
  • सबहिं नचावत राम ग़ोसाई
    मोहि नचावत तुलसी गोसाई -फादर कामिल बुल्के
  • 'बुद्ध के बाद तुलसी भारत के सबसे बड़े समन्वयकारी है' -जार्ज ग्रियर्सन
  • 'मानस (तुलसी) लोक से शास्त्र का, संस्कृत से भाषा (देश भाषा) का, सगुण से निर्गुण का, ज्ञान से भक्ति का, शैव से वैष्णव का, ब्राह्मण से शूद्र का, पंडित से मूर्ख का, गार्हस्थ से वैराग्य का समन्वय है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • बहुरि वदन विधु अँचल ढाँकी, पिय तन चितै भौंह करि बांकी खंजन मंजु तिरीछे नैननि, निज पति कहेउं तिनहहिं सिय सैननि। (ग्रामीण स्त्रियों द्वारा राम से संबंध के प्रश्न पूछने पर सीता का आंगिक लक्षणों से जवाब) -तुलसीदास
  • हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तूने देखी सीता मृगनयनी -तुलसीदास
  • पूजिये विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुण गन ज्ञान प्रवीना -तुलसीदास
  • छिति, जल, पावक, गगन, समीरा
    पंचरचित यह अधम शरीरा। -तुलसीदास
  • कत विधि सृजी नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं -तुलसीदास
  • अखिल विश्व यह मोर उपाया
    सब पर मोहि बराबर माया। -तुलसीदास
  • काह कहौं छवि आजुकि भले बने हो नाथ।
    तुलसी मस्तक तव नवै धरो धनुष शर हाथ।। -तुलसीदास
  • सब मम प्रिय सब मम उपजाये
    सबते अधिक मनुज मोहिं भावे -तुलसीदास
  • मेरी न जात-पाँत, न चहौ काहू की जात-पाँत -तुलसीदास
  • सुन रे मानुष भाई,
    सबार ऊपर मानुष सत्य
    ताहार ऊपर किछु नाई। -चण्डी दास
  • बड़ा भाग मानुष तन पावा,
    सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा -तुलसीदास
  • 'जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तः करणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग था।' -श्याम सुन्दर दास
  • 'हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।' -रामचन्द्र शुक्ल
  • जनकसुता, जगजननि जानकी।
    अतिसय प्रिय करुणानिधान की। -तुलसीदास
  • तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही। -तुलसीदास
  • अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेल बोई।
    सावन माँ उमग्यो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री। -मीरा
  • घायल की गति घायल जानै और न जानै कोई। -मीरा
  • मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
    ओढि पिताबंर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी।
    भावतो सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
    या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी। - रसखान
  • जब जब होइ धरम की हानि। बढ़हिं असुर महा अभिमानी।।
    तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन भवपीरा।। -तुलसीदास
  • 'समूचे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
    प्रेम गली अती सांकरी, ता में दो न समाहि।। -कबीर
  • मो सम कौन कुटिल खल कामी -सूरदास
  • भरोसो दृढ इन चरनन केरो -सूरदास
  • धुनि ग्रमे उत्पन्नो, दादू योगेंद्रा महामुनि -रज्जब
  • सब ते भले विमूढ़ जन, जिन्हें न व्यापै जगत गति -तुलसीदास
  • केसव कहि न जाइ का कहिए।
    देखत तब रचना विचित्र अति, समुझि मनहि मन रहिए।
    ('विनय पत्रिका') -तुलसीदास
  • पुष्टिमार्ग का जहाज जात है सो जाको कछु लेना हो सो लेउ -विट्ठलदास
  • हरि है राजनीति पढ़ि आए -सूरदास
  • अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
    दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।। -मलूकदास
  • हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास।
    सब जग जलता देख, भया कबीर उदास।। -कबीर
  • विक्रम धँसा प्रेम का बारा, सपनावती कहँ गयऊ पतारा। -मंझन
  • कब घर में बैठे रहे, नाहिंन हाट बाजार
    मधुमालती, मृगावती पोथी दोउ उचार। -बनारसी दास
  • मुझको क्या तू ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास रे। -कबीर
  • रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई
    कुलवंती सत सो सति भई -कुतबन
  • बलंदीप देखा अँगरेजा, तहाँ जाई जेहि कठिन करेजा -उसमान
  • जानत है वह सिरजनहारा, जो किछु है मन मरम हमारा।
    हिंदु मग पर पाँव न राखेऊ, का जो बहुतै हिंदी भाखेऊ।।
    ('अनुराग बाँसुरी') -नूर मुहम्मद
  • यह सिर नवे न राम कू, नाहीं गिरियो टूट।
    आन देव नहिं परसिये, यह तन जायो छूट।। -चरनदास
  • सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय।
    गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।। -रहीम
  • मो मन गिरिधर छवि पै अटक्यो/ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो -कृष्णदास
  • कहा करौ बैकुंठहि जाय
    जहाँ नहिं नंद, जहाँ न जसोदा, नहिं जहँ गोपी, ग्वाल न गाय -परमानंद दास
  • बसो मेरे नैनन में नंदलाल
    मोहनि मूरत, साँवरि सूरत, नैना बने रसाल -मीरा
  • लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल -होलराय
  • साखी सबद दोहरा, कहि कहिनी उपखान।
    भगति निरूपहिं निंदहि बेद पुरान।। -तुलसीदास
  • माता पिता जग जाइ तज्यो
    विधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाई -तुलसीदास
  • निर्गुण ब्रह्म को कियो समाधु
    तब ही चले कबीरा साधु। -दादू
  • अपना मस्तक काटिकै बीर हुआ कबीर -दादू
  • सो जागी जाके मन में मुद्रा/रात-दिवस ना करई निद्रा -कबीर
  • काहे री नलिनी तू कुम्हलानी/तेरे ही नालि सरोवर पानी। -कबीर
  • कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो -नाभादास
  • नैया बिच नदिया डूबति जाय -कबीर
  • भक्तिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा -तुलसी
  • प्रभुजी मोरे अवगुन चित्त न धरो -सूर
  • अब लौ नसानो अब न नसैहों [अब तक का जीवन नाश (बर्बाद) किया। आगे न करूँगा।] -तुलसी
  • अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे -कबीर
  • संत हृदय नवनीत समाना -तुलसी
  • रामझरोखे बैठ के जग का मुजरा देख -कबीर
  • निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोई।

  • सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि-मन भ्रम होई।। -तुलसी
  • स्याम गौर किमि कहौं बखानी।
    गिरा अनयन नयन बिनु बानी।। -तुलसी
  • दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे मांहि।
    ज्यों रहीम नटकुंडली, सिमिट कूदि चलि जांहि।। -रहीम
  • प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहिं पइए -सूर
  • तब लग ही जीबो भला देबौ होय न धीम।
    जन में रहिबो कुँचित गति उचित न होय रहीम।। -रहीम
  • सेस महेस गनेस दिनेस, सुरेसहुँ जाहि निरंतर गावैं।
    जाहिं अनादि अनन्त अखंड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं।। -रसखान
  • बहु बीती थोरी रही, सोऊ बीती जाय।
    हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि बृंदावन आय।। -ध्रुवदास
  • पूर्व-मध्यकालीन/भक्तिकालीन रचना एवं रचनाकार

    (A) संत काव्य

    बीजक (1. रमैनी 2. सबद 3. साखी; संकलन धर्मदास) कबीरदास
    बानी रैदास
    ग्रंथ साहिब में संकलित
    (संकलन-गुरु अर्जुन देव)
    नानक देव
    सुंदर विलाप सुंदर दास
    रत्न खान, ज्ञानबोध मलूक दास

    (B) सूफी काव्य

    हंसावली असाइत
    चंदायन या लोरकहा मुल्ला दाऊद
    मधुमालती मंझन
    मृगावती कुतबन
    चित्रावती उसमान
    पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, कन्हावत जायसी
    माधवानल कामकंदला आलम
    ज्ञान दीपक शेख नबी
    रस रतन पुहकर
    लखमसेन पद्मावत कथा दामोदर कवि
    रूप मंजरी नंद दास
    सत्यवती कथा ईश्वर दास
    इंद्रावती, अनुराग बाँसुरी नूर मुहम्मद

    (C) कृष्ण भक्ति काव्य

    सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, भ्रमरगीत (सूरसागर से संकलित अंश) सूरदास
    फुटकल पद कुंभन दास
    परमानंद सागर परममानंद दास
    जुगलमान चरित्र कृष्ण दास
    फुटकल पद गोविंद स्वामी
    द्वादशयश, भक्ति प्रताप, हितजू को मंगल चतुर्भुज दास
    रास पंचाध्यायी, भंवर गीत (प्रबंध काव्य) नंद दास
    युगल शतक श्री भट्ट
    हित चौरासी हित हरिवंश
    हरिदास जी के पद स्वामी हरिदास
    भक्त नामावली, रसलावनी ध्रुव दास
    नरसी जी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद मीराबाई
    प्रेम वाटिका, सुजान रसखान, दानलीला रसखान
    सुदामा चरित नरोत्तमदास

    (D) राम भक्ति काव्य

    राम आरती रामानंद
    रामाष्टयाम, राम भजन मंजरी अग्र दास
    भरत मिलाप, अंगद पैज ईश्वर दास
    रामचरित मानस (प्र०), गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, कृष्ण गीतावली,
    पार्वती मंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण (प्र०), रामाज्ञा प्रश्नावली,
    वैराग्य संदीपनी, राम लला नहछू
    तुलसीदास
    भक्त माल नाभादास
    रामचन्द्रिका (प्रबंध काव्य) केशव दास
    पौरुषेय रामायण नरहरि दास

    (E) विविध

    पंचसहेली छीहल
    हरिचरित, भागवत दशम स्कंध भाषा लालच दास
    रुक्मिणी मंगल, छप्पय नीति, कवित्त संग्रह महापात्र नरहरि बंदीजन
    माधवानल कामकंदला आलम
    शत प्रश्नोत्तरी मनोहर कवि
    हनुमन्नाटक बलभद्र मिश्र
    कविप्रिया, रसिक प्रिया , वीर सिंह, देव चरित(प्र०),
    विज्ञान गीता, रतनबावनी, जहाँगीर जस चंद्रिका
    केशव दास
    रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका भेद, श्रृंगार सोरठा,
    मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, रहीम रत्नावली
    रहीम (अब्दुर्रहीम खाने खाना)
    काव्य कल्पद्रुम सेनापति
    रस रतन पुहकर कवि
    सुंदर श्रृंगार सुंदर
    पद्दिनी चरित्र लालचंद

    'अष्टछाप' के कवि

    बल्लभाचार्य के शिष्य (1) सूरदास (2) कुंभन दास (3) परमानंद दास (4) कृष्ण दास
    बिट्ठलनाथ के शिष्य (5) छीत स्वामी (6) गोविंद स्वामी (7) चतुर्भुज दास (8) नंद दास

    उत्तर-मध्यकाल/रीतिकाल (1650ई० - 1850ई०)

  • नामकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल विवादास्पद है। इसे मिश्र बंधु ने 'अलंकृत काल', रामचन्द्र शुक्ल ने 'रीतिकाल' और विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'श्रृंगार काल' कहा है।
  • रीतिकाल के उदय के संबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है : 'इसका कारण जनता की रूचि नहीं, आश्रयदाताओं की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था। .... रीतिकालीन कविता में लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृत्तियाँ मिलती हैं उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थीं।
  • डॉ० नगेन्द्र का मत है, 'घोर सामाजिक और राजनीतिक पतन के उस युग में जीवन बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर घर की चारदीवारी में कैद हो गया था। घर में न शास्त्र चिंतन था न धर्म चिंतन। अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम था-काम। जीवन की बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर मन नारी के अंगों में मुँह छिपाकर विशुद्ध विभोर तो हो जाता था' ।
  • हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, 'संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषतः रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। ...... लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी आदि भावों के पूर्वनिर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर ये कवि बंधी-सधी बोली में बंधे-सधे भावों की कवायद करने लगे' ।
  • समग्रतः रीतिकालीन काव्य जनकाव्य नहीं है बल्कि दरबारी संस्कृति का काव्य है। इसमें श्रृंगार और शब्द-सज्जा पर जोर रहा। कवियों ने सामान्य जनता की रुचि को अनदेखा कर सामंतों एवं रईसों की अभिरुचियों को कविता के केन्द्र में रखा। इससे कविता आम आदमी के दुख एवं हर्ष से जुड़ने के बजाय दरबारों के वैभव व विलास से जुड़ गई।
  • रीतिकाल की दो मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं-
    (1) रीति निरूपण
    (2) श्रृंगारिकता।
  • रीति निरूपण को काव्यांग विवेचन के आधार पर दो वर्गो में बाँटा जा सकता है
  • (1) सर्वाग विवेचन : सर्वाग विवेचन के अन्तर्गत काव्य के सभी अंगों (रस, छंद, अलंकार आदि) को विवेचन का विषय बनाया गया है। चिन्तामणि का 'कविकुलकल्पतरु', देव का 'शब्द रसायन', कुलपति का 'रस रहस्य', भिखारी दास का 'काव्य निर्णय' इसी तरह के ग्रंथ हैं।
    (ii) विशिष्टांग विवेचन : विशिष्टांग विवेचन के तहत काव्यांगों में रस, छंद व अलंकारों में से किसी एक अथवा दो अथवा तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है। तीनों में रस में और रस में भी श्रृंगार रस में रचनाकारों ने विशेष दिलचस्पी दिखाई है। 'रसविलास' (चिंतामणि), 'रसार्णव' (सुखदेव मिश्र), 'रस प्रबोध' (रसलीन), 'रसराज' (मतिराम), 'श्रृंगार निर्णय' (भिखारी दास), 'अलंकार रत्नाकर' (दलपति राय), 'छंद विलास' (माखन) आदि इसी श्रेणी के ग्रंथ हैं।
  • रीति निरूपण की परिपाटी बहुत सतही है। रीति निरूपण में रीति कालीन रचनाकारों की रूचि शास्त्र के प्रति निष्ठा का परिणाम नहीं है बल्कि दरबार में पैदा हुई रचनात्मक आवश्यकता है। इनका उद्देश्य सिर्फ नवोदित कवियों को काव्यशास्त्र की हल्की-फुल्की जानकारी देना है तथा अपने आश्रयदाताओं पर अपने पांडित्य का धौंस जमाकर अर्थ दोहन करना है।
  • रीतिकालीन कवियों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त।
    (i) रीतिबद्ध कवि : रीतिबद्ध कवियों (आचार्य कवियों) ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परम्परा का निर्वाह किया है; जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, पद्माकर आदि। आचार्य राचन्द्र शुक्ल ने केशवदास को 'कठिन काव्य का प्रेत' कहा है।
    (ii) रीतिसिद्ध कवि : रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्य शास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते है।
    (iii) रीतिमुक्त कवि : रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव आदि इस वर्ग में आते हैं।
  • रीतिकालीन आचार्यों में देव एकमात्र अपवाद है जिन्होंने रीति निरूपण के क्षेत्र में मौलिक उद्भावनाएं की।
  • रीतिकाल की दूसरी मुख्य प्रवृत्ति श्रृंगारिकता थी।
    (i) रीतिबद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :रीतिबद्ध कवियों ने काव्यांग निरूपण करते हुए उदाहरणस्वरूप श्रृंगारिकता रचनाएँ प्रस्तुत की है। केशवदास, चिंतामणि, देव, मतिराम आदि की रचनाओं में इसे देखा जा सकता है।

    (ii) रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता : रीतिसिद्ध कवियों का काव्य रीति निरूपण से तो दूर है, किन्तु रीति की छाप लिए हुए है। बिहारी, रसनिधि आदि की रचनाओं में इसे देखा जा सकता है।

    (iii) रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकता : रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकताविशिष्ट प्रकार की है। रीतिमुक्त कवि 'प्रेम की पीर' के सच्चे गायक थे। इनके श्रृंगार में प्रेम की तीव्रता भी है एवं आत्मा की पुकार भी। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि की रचनाओं में इसे महसूस किया जा सकता है।

  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है : ''श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान 'बिहारी सतसई' का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। .... बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। .... मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं।
    जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है।''
    थोड़े में बहुत कुछ कहने की अदभुत क्षमता को देखते हुए किसी ने कहा है-

    सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
    देखन में छोटे लगे, घाव करै गंभीर।।

    अर्थात जिस तरह नावक अर्थात तीरंदाज के तीर देखने में छोटे होते हैं पर गंभीर घाव करते हैं, उसी तरह बिहारी सतसई के दोहे देखने में छोटे लगते है पर अत्यंत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं।

  • रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियाँ थीं- भक्ति वीरकाव्य/राज प्रशस्ति व नीति।
  • रीतिकाल में भक्ति की प्रवृत्ति मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, काव्यांग विवेचन संबंधी ग्रंथों में दिए गए उदाहरणों आदि में मिलती है।
  • रीतिकाल में लाल कवि, पद्माकर भट्ट, सूदन, खुमान, जोधराज आदि ने जहाँ प्रबंधात्मक वीर-काव्य की रचना की, वहीं भूषण, बाँकी दास आदि मुक्तक वीर-काव्य की। इन कवियों ने अपने संरक्षक राजाओं का ओजस्वी वर्णन किया है।
  • रीतिकाल में वृन्द, रामसहाय दास, दीन दयाल गिरि, गिरिधर, कविराय, घाघ-भड्डरि, वैताल आदि ने निति विषयक रचनाएँ रची।